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मज़बूत बुनियाद - (लघुकथा) - मिथिलेश वामनकर

“मम्मा मेरे लिए ब्रेकफास्ट में केवल फ्रूट सलाद बनाना.”
“आज फ्रूट्स नहीं है... कुछ और बना दूं ?”
“नहीं” - परी ने मना कर दिया क्योकिं पार्टी में हैवी डाईट के कारण ब्रेकफास्ट लाईट करना चाहती थी. तभी बेडरूम से पापा बाहर आये. अपनी इकलौती बेटी को देर रात से घर आने के लिए समझाते रहें और मॉर्निंग-वाक के लिए निकल गए.
“मम्मा... ये पापा सुबह-सुबह चालू हो जाते है, ये करो, ये मत करो.... ये लेट नाईट पार्टीज हमारा कल्चर नहीं है. ब्ला ब्ला ब्ला.......”
“तुम्हारी केयर करते है पापा, इसलिए समझाते है.”
“ये क्या... हमेशा कल्चर-कल्चर की स्पीच देते रहते है. लड़की हूँ न इसलिए. वैसे भी पापा की जेनरेशन ही ऐसी है जो लड़की की बर्थ से ही परेशान हो जाते है. पापा को बेटा चाहिए होगा... है न माँ?”
“छी ! कैसी बात करती है पगली....? इधर आ, बैठ, तुझे एक बात बताती हूँ.”
“कौन सी बात मम्मा....”
“हम्म्म..... हमें शादी के लिए घरवालों को, मतलब तुम्हारे दादा-दादी और नाना-नानी को, मनाने में पूरा एक साल लगा. उन्हीं दिनों में ये अक्सर कहते थे कि अनु शादी के बाद मुझे तुम्हारे जैसी ही सुन्दर बिटिया चाहिए...... तुम्हारा नाम तक सोच लिया था....परी....” मम्मा देर तक बताती रही.
पापा मॉर्निंग-वाक से लौटकर आये तो उनके हाथों में फलों से भरी दो थैलियाँ थी. उन्होंने थैलियाँ डाइनिंग टेबल पर रखी और न्यूज़-पेपर उठाकर, अपने कमरें में चले गए.
परी, मम्मा की आँखों में विश्वास की बुनियाद को और मज़बूत होते देखती रही.

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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 6, 2015 at 9:50pm

आदरणीय  Er Nohar Singh Dhruv 'Narendra' जी , लघुकथा  की सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. 

Comment by Er Nohar Singh Dhruv 'Narendra' on August 6, 2015 at 7:28pm
आज के समय और प्पिऋवष को देखते हुए बेटी को समझाना एवं उसके लिए चिंता करना एक पिता के लिए निहायत ही ज़रूरी है ताकि वो अपने परी सी गुड़िया को आदमखोर भेड़ियों से दूर रख सके... बहुत ही सुन्दर रचना गढ़ा है आपने आद० मिथलेश वामनकर जी... बहुत बहुत बधाई...

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 1, 2015 at 1:31pm

इस लघुकथा पर गुणीजनों से मार्गदर्शन निवेदित है. सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 30, 2015 at 11:54pm

जितने  मन से इस लघुकथा को लिखा है उतने ही मन से आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया पाकर दिल खुश हो गया आदरणीय आशुतोष जी. हार्दिक आभार  

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 30, 2015 at 2:45pm

आदरणीय मिथिलेश जी ..बहुत ही शानदार लघु कथा है ..एक अलग ही ताजगी मिली ..मेरे भी ऐसे बहुत दोस्त हैं जिनकी परी के नाना नानी दादा दादी को मनाने में भरी मसक्कत करनी पडी ..और वो भी अपनी परी से इतना ही प्यार करते हैं ..आपकी सोच को सलाम  यह कहानी तो ज़माने से मेरे गिर्द घूम रही थे लेकिन इसे इस अंदाज में भी बयां किया जा सकता था मैंने सोचा न था ..सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 30, 2015 at 1:16pm

आदरणीय तेज बहादुर सिंह जी, सही कहा आपने. लघुकथा के प्रयास पर सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 30, 2015 at 1:15pm

आदरणीया बबिता जी आपने लघुकथा को महसूस किया और एक सार्थक प्रतिक्रिया दी. सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.


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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 30, 2015 at 1:13pm

आदरणीया अर्चना जी, आपकी प्रतिक्रिया की पहली पंक्ति ने मुग्ध कर दिया-"वाकई में वक्त ने करवट ले ली हैं ।" दरअसल लघुकथा के रचनाकर्म के मूल में यही संवेदना मेरे भीतर चल रही थी और संभवतः यही लघुकथा की प्रेरणा भी थी. रचना के मर्म को लेखक के समानांतर  महसूस करते हुए सकारात्मक और सार्थक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार  

Comment by TEJ VEER SINGH on July 30, 2015 at 1:02pm

आदरणीय मिथिलेश जी, बहुत ही मार्मिक लघुकथा,बधाई!आज की पीढी को समझना और समझाना कितना ज़टिल कार्य है,कितनी बारीकी से वर्णन किया है!अति सुंदर!

Comment by babita choubey shakti on July 30, 2015 at 6:59am
आ बामनकर जी बहुत सुन्दर कथा बेटी के मन से बो भाव जो उसे पिता की सीख़ भी लेक्चर लग रही थी माँ की बातों द्वारा समझाना और फिर पिता का फ़्रूट लाना बिलकुल जैसे सच में द्रश्य सामने था ।बहुत ही अच्छी लगी बधाई

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