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गजल--मेरी किस्मत के पन्नों में कोई हरकत नहीं दिखती।

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
बहुत दिन हो गये अब भी कहीं राहत नहीं दिखती।
मे'री किस्मत के' पन्नों में को'ई हरकत नहीं दिखती।।
***
सभी मन्दिर में' मस्जिद,चर्च में दिल ले के' भटका हूँ।
किसी मजहब में' दुनिया के मुझे कुदरत नहीं दिखती।।
***
ते'री फुरकत के' तीरों ने किया हैं आश तक घायल।
मुझे अफसोस है तुझको मे'री हालत नहीं दिखती।।
***
सनम इक जख़्म रो रो कर बडी जिद करता' है मुझसे।
कहाँ से ला के' दूँ तुझको इसे गुरबत नहीं दिखती।।
***
हमारी जे़ब में सोने का' इक सिक्का नहीं है और।
मुहब्बत की जमाने में को'ई कीमत नहीं दिखती।।
***
तुम्हारे ख़त के' इक कोने में' बैठा रो रहा हूँ मैं।
किसी भी शब्द के लब पर मुझे चाहत नहीं दिखती।।
***
वफा से आज 'राहुल' जो जरा सा हट के' देखा तो।
समझ आया कि क्यूं उसको मे'री जिल्लत नहीं दिखती।।

मौलिक व अप्रकाशित ।

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Comment by Rahul Dangi Panchal on June 28, 2015 at 6:55pm
कहना यह है आदरणीय मैं ४ वें शेर ठीक है ना सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 28, 2015 at 2:13pm

किसी भी बहर के किसी भी मिसरे में एक अतिरिक्त लघु लेने की छूट है , लेकिन दो मात्रा को गिरा के एक नही करना है , एक लघु ही हो छूट वली मात्रा ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 28, 2015 at 12:28pm

राहुल भाई

बहुत बेहतरीन . सादर .

Comment by Rahul Dangi Panchal on June 28, 2015 at 7:45am
आदरणीय १२२२ १२२२ १२२२ १२२२/ १२२२१ क्या इस बहर में जैसा मैने किया है । छूट है
Comment by Rahul Dangi Panchal on June 28, 2015 at 7:41am
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी शुक्रिया

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 4:46am

बढ़िया ग़ज़ल 

बधाई 

Comment by Rahul Dangi Panchal on June 27, 2015 at 1:28pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी शुक्रिया । आपके सुझाव पर विचार करता हुँ सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 27, 2015 at 11:39am

आदरणीय राहुल भाई ,  अच्छी गज़ल कही है , दिली मुबारक बाद आपको , निम्न बातों का खयाल और कीजियेगा --

किया है आश तक घायल , या हुआ हूँ आश तक घायल

तुम्हारे ख़त के इक कोने में बैठा रो रहा हूँ मैं, --- में  शुरुर्गुरबा दोष है  - उला मे  तुम्हारे और सानी में तेरे -- इसको को  ऐसा कह सकते हैं  , चाहें तो

तुम्हारे ख़त लिये कोने में बैठा रो रहा हूँ मैं, 

तुम्हारे खत में मुझको अब कहीं उल्फत नहीं दिखती।

ये दोनो शे र मै समझ नही पाया ,  देखियेगा , शायद सुधार चाहते हैं  या मै नहीं समझ पाया ।

जहर पी कर भी जिन्दा हूँ मैं इक घायल परिन्दा हूँ।
कहाँ पे अटकी है साँसें,बता हसरत? नहीं दिखती।

उठाओ जश्न से अर्थी कि अब आजाद है 'राहुल',
क्यूं यारों देर करते हो उन्हें फुरसत नहीं दिखती।।    -

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