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ग़ज़ल ;रिश्तों में जो थीं.. /श्री सुनील

2212 2122 2212

रिश्तों में जो थी दरारें, भरने लगीं
पहले सा मैं, आप तब सी लगने लगीं.

चुप्पी सी थी इक ख़ला सा था बीच में
उम्मीद की वां शुआऐं दिखने लगीं.

अब ये जहाँ तेरी ज़़द में लगता है, लो!
आँचल में तेरे फ़िज़ाऐं छुपने लगीं.

जब फ़ासलों में पड़ीं थोड़ी सिलबटें
ये क़ुर्बतें अपनी सब को खलने लगीं.

तू मेरी होगी, यकीं ये था क्योंकि इन
हाँथो में तुम सी लकीरें बनने लगीं.

किस जज्बे से तुम दुआएं करती हो वां
पहलू से अब यां बलायेें टलने लगीं.


मौलिक व अप्रकाशित

Views: 782

Comment

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Comment by shree suneel on June 10, 2015 at 11:05pm
ग़ज़ल की सराहना के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय गोपाल नारायण सर.
Comment by shree suneel on June 10, 2015 at 11:04pm
ग़ज़ल में शिर्कत के लिए शुक्रिया आदरणीय समर कबीर सर.
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 10, 2015 at 5:05pm
सुन्दर ग़ज़ल सधे विचारों को उद्धरित किया है आदरणीय जिसके लिये दिली दाद कुबूल करें लेकिन जहाँ तहाँ मात्रा पतन हुआ है। मापनी की दृष्टि से ।
Comment by Rahul Dangi Panchal on June 10, 2015 at 5:01pm
बहुत सुन्दर
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 9, 2015 at 11:14am

बहुत उम्दा सुनील जी

किस जज्बे से तुम दुआएं करती हो वां
पहलू से अब यां बलायेें टलने लगीं.

Comment by Samar kabeer on June 9, 2015 at 10:41am
जनाब श्री सुनील जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
Comment by shree suneel on June 9, 2015 at 9:58am
सराहना के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय मोहन सेठी जी.
Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on June 9, 2015 at 7:53am

वाह ....

रिश्तों में जो थी दरारें, भरने लगीं
पहले सा मैं, आप तब सी लगने लगीं.

बढ़िया शेर हुए हैं ...बधाई  

Comment by shree suneel on June 8, 2015 at 10:33pm
ग़ज़ल पसंदगी के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी.
Comment by shree suneel on June 8, 2015 at 10:31pm
धन्यवाद आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी.

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