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गरीबी का फोड़ा (लघुकथा )

मजदूरी करके जितना भी कमाता , आधी से ज्यादा बेटे के पढ़ाई के लिये लगाता । पिता के फर्ज़ से वह उरिन होना चाहता था । गरीबी सदा जिंदगी को जटिल बनाने के लिये अपना मोर्चा संभाले रहती है । बेटे का मन आस पडोस के लडकों में रमा रहता । फिर भी पिता अपनी आस को रबड़ के भाँति खींच कर पकडे़ हुए था ... कि एकदिन बेटा बडा होकर उसका मर्म जान पायेगा । आज दसवीं का रिजल्ट आने वाला था । पूजा घर में माँ बेटे के लिए प्रार्थना में लगी रही सुबह से । रिजल्ट आते ही घर में सब जकड़न टुट गई । विजय ने अपनी हार का ठीकरा पिता के गरीबी पर जा फोड़ा था । गरीबी कलेजे पर फोड़े के मवाद की तरह बह निकली थी ।


कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

Views: 802

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Comment by kanta roy on May 13, 2015 at 11:44pm
आदरणीय अंकित तोमर जी कथा को पसंद करने के लिए आभार आपको तहे दिल से
Comment by kanta roy on May 13, 2015 at 11:42pm
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी ...आपको कथा पसंद आई ....मेरा लिखना सार्थक हुआ । आभार
Comment by kanta roy on May 13, 2015 at 11:40pm
आभार आपको आदरणीय अमन कुमार जी रचना पसंद करने के लिये ।
Comment by kanta roy on May 13, 2015 at 11:39pm
बिलकुल सच कहा आपने आदरणीय मनोज कुमार एहसास जी गरीबी में कोई हिस्सेदार नही होता है । आभार
Comment by Govind pandit 'swapnadarshi' on May 13, 2015 at 11:35pm

आदरणीय कांता जी हृदय को छूने वाली लघुकथा. हार्दिक बधाई. 

Comment by ankit tomar on May 13, 2015 at 10:08pm
आपकी कहानी लघु हैं लेकिन सर बेहद जीवित ह
Comment by ankit tomar on May 13, 2015 at 10:08pm
आपकी कहानी लघु हैं लेकिन सर बेहद जीवित ह
Comment by ankit tomar on May 13, 2015 at 10:07pm
Your story short, sir, but extremely alive

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 13, 2015 at 9:48pm
आदरणीया कान्ता जी एक अच्छे विषय पर बेहतरीन लघुकथा हेतु बधाई।
Comment by aman kumar on May 13, 2015 at 3:56pm

सत्य और सुंदर भाव बधाई हो

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