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ग़ज़ल : नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

यूँ तो जो जी में आए वो करता है, राजा है मन

पर उनके आगे झटपट बन जाता भिखमंगा है मन

 

उनसे मिलने के पहले यूँ लगता था घोंघा है मन

अब तो ऐसा लगता है जैसे अरबी घोड़ा है मन

 

उनके बिन खाली रहता है, कानों में बजता है मन

जिसमें भरकर उनको पीता हूँ वो पैमाना है मन

 

पहले अक़्सर मुझको लगता था शायद काला है मन

पर उनसे लिपटा जबसे तबसे गोरा गोरा है मन

 

मुझको इनसे अक्सर भीनी भीनी ख़ुशबू आती है

नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 9:49am
बहुत बहुत धन्यवाद आ. जवाहर लाल साहब
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 9:49am
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आ. गिरिराज जी। रदीफ़ थोड़ा सा मुश्किल था इसलिए काफ़िया आसान ले लिया था मैंने। :)
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 9:47am
बहुत बहुत धन्यवाद आ. उमेश कटारा जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 9:46am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. लक्ष्मण धामी जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 9:45am
धन्यवाद सोमेश जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 9:44am
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ जनाब इंतज़ार साहब
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 9:44am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. मिथिलेश जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 9:43am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. महिमा श्री जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 9:41am
बहुत बहुत धन्यवाद आ. प्रतिभा त्रिपाठी जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 9:40am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. विजय शंकर जी

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