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ग़ज़ल -- आया था जो भी ज़ेहन में काग़ज़ पे लिख दिया ( बराए इस्लाह )

तरतीब से सजे दर-ओ- दीवार घर नहीं
सुख दुख में जब कि साथ तेरे हमसफ़र नहीं

ऐसा नहीं कि राहे सफ़र में शजर नहीं
आसान फिर भी जिन्दगी की रहगुज़र नहीं

उपदेश दूसरों को सभी लोग दे रहे
खुद उन पे जो अमल करे ऐसा बशर नहीं

रिश्तों की भीड़ में कहीं गुम हो गये सभी
अब रौनकें वो पहले सी, चौपाल पर नहीं

जीवन की भागदौड़, चकाचौंध में बशर
खोया है इस कदर उसे खुद की खबर नहीं

गुटका शराब पीते हैं अब सब के सामने
आया अजीब दौर है बच्चों को ड़र नहीं

जन्नत की हर खुशी पे तेरे दिल का राज हो...??
शुक्र-ए-खुदा मना कि जो तू दरबदर नहीं

साहिल पे बैठ कर जो फ़क़त ख़्वाब देखते
किस्मत में उनकी एक भी लालो गुहर नहीं

छूटे जनम मरण का ये बन्धन, मिले खुदा
दरवेश की दुआ में वो अब तक असर नहीं

आया था जो भी ज़ेहन में काग़ज़ पे लिख दिया
शेर-ओ-सुख़न तो कहने का मुझ में हुनर नहीं

-- दिनेश कुमार २२/०२/२०१५

( मौलिक व अप्रकाशित )

अरकान -- २२१-२१२१-१२२१-२१२

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 23, 2015 at 2:16pm

आ० दिनेश जी

सुन्दर i
 आया था जो भी ज़ेहन में काग़ज़ पे लिख दिया
शेर-ओ-सुख़न तो कहने का मुझ में हुनर नहीं-------------------- vaah ----

कवित विवेक एकु नहीं मोरे i सत्य कहंउ  लिखि कागद कोरे  i

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