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एक मुट्ठी गालियाँ...... (मिथिलेश वामनकर)

2122—2122—2122—212

 

रात  भर  संघर्ष  कर  जब  थक  गई ये  आँधियाँ

एक दस्तक दी हवा ने, खुल  गई सब  खिड़कियाँ

 

जो गया ,  जाना उसे  था , कौन  जो  ठहरा  बता

बैठ कर  लिखते   रहोगे  मर्सिया  कब तक मियाँ

 

तीर  बूँदों  के  भला ,  क्या  आपको  आये  मज़ा

भीग  जाने   का  हुनर  तो  जानती  है  छतरियाँ

 

तीरगी  से  क्यूँ   लबालब   है  मरासिम  याखुदा

रौशनी  भी  कैसे   आये   आज  उनके  दरमियाँ

 

ज़ेब  में  है वज्न  कितना ,  ये  जमाना   देखता

फूल कितना खिल गया है, देखती  है  तितलियाँ

 

सौंपकर  अपना खज़ाना  ज़िन्दगी ये क्या किया

इक चिमुट भर दी दुआ फिर एक मुट्ठी गालियाँ

 

ऐ  समन्दर  बोल  तो , ये  है  भला  कैसी  सज़ा

किस तरह  मुमकिन बता बैठे किनारे मछलियाँ

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 7, 2015 at 10:24pm

आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला सर, इस ग़ज़ल पर आपकी  उपस्थिति ने ही रचना का मान बढ़ा दिया, आपका स्नेह और सराहना पाकर रचना सार्थक हुई. इस उत्साहवर्धक सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभारी हूँ. नमन 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 6, 2015 at 10:53am

बेहद उम्दा और  भावपूर्ण गजल के लिए बधाई  श्री मिथिलेश वामनकर जी, विशेषकर - 

रात  भर  संघर्ष  कर  जब  थक  गई ये  आँधियाँ

एक दस्तक दी हवा ने, खुल  गई सब  खिड़कियाँ---- उम्दा  आश'आर 

 

जो गया ,  जाना उसे  था , कौन  जो  ठहरा  बता

बैठ कर  लिखते   रहोगे  मर्सिया  कब तक मियाँ ----  सार्थक और भावपूर्ण 

सौंपकर  अपना खज़ाना  ज़िन्दगी ये क्या किया

इक चिमुट भर दी दुआ फिर एक मुट्ठी गालियाँ --     लाजवाब  | वाह !

 

 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 3:51am
आदरणीय सर्वेश भाई जी ग़ज़ल पर सराहना के लिए हार्दिक आभार

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 2:33am

परमआदरणीय  sharadindu mukerji  सर, आपकी रचना पर उपस्थिति ने ही रचना का मान बढ़ा दिया, एक नए रचनाकार की ग़ज़ल पर मुक्त कंठ से प्रशंसा करना, आपका बड़प्पन है. आपके विशाल हृदय का परिचायक है. यही बड़े लोगो की विशिष्टता है. अभिभूत हूँ आपका स्नेह पाकर. आपके हृदय की विशालता को नमन करता हूँ. 

Comment by सर्वेश कुमार मिश्र on February 6, 2015 at 2:30am

बहुत अच्छी गजल...बधाई


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Comment by sharadindu mukerji on February 6, 2015 at 2:25am
आदरणीय मिथिलेश जी, आपकी इस रचना में वह ताक़त है कि मुझ जैसा उजड्ड गँवार भी कागज़-कलम हाथ में लिए कुछ देर के लिए खो जाए. लखनऊ वासी होते हुए भी उर्दू भाषा और ग़ज़ल की मुझमें समझ नहीं है...यह मेरा ही दुर्भाग्य है.....यदि मैं रसास्वादन के साथ ग़ज़ल पढ़ने लगूँ तो उसका कारण आपकी इन पंक्तियों की गूँज होगी.....मज़ा आ गया....वाह!

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 2:17am

आदरणीया राजेश कुमारी जी, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति से ही मन आनंदित हो गया है, उस पर स्नेह और सराहना के रूप में आशीष मिल गया तो हृदय झूम उठा है. ग़ज़ल आपको पसंद आई लिखना सार्थक हुआ. नमन. 


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Comment by rajesh kumari on February 5, 2015 at 8:55pm

रात  भर  संघर्ष  कर  जब  थक  गई ये  आँधियाँ

एक दस्तक दी हवा ने, खुल  गई सब  खिड़कियाँ-----कमाल का मतला क्या बात वाह वाह 

तीर  बूँदों  के  भला ,  क्या  आपको  आये  मज़ा

भीग  जाने   का  हुनर  तो  जानती  है  छतरियाँ------शानदार ,जानदार कहन

सौंपकर  अपना खज़ाना  ज़िन्दगी ये क्या किया

इक चिमुट भर दी दुआ फिर एक मुट्ठी गालियाँ--अब मैं किस किस शेर की बात करूँ सभी एक से बढ़कर एक हैं 

इस गैरमुरद्दफ़ ग़ज़ल ने दिल लूट लिया

ढेरों दिली दाद स्वीकारें  

 

 

 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 5, 2015 at 8:43pm
आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 5, 2015 at 8:39pm
आदरणीय समर कबीर सर आपके मार्गदर्शन से त्रुटी सही कर सका हार्दिक आभार।

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