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ठंडी थाली (लघुकथा) - मिथिलेश वामनकर

पति-पत्नी डाइनिंग टेबल पर लंच के लिए बैठे ही थे कि डोरबेल बजी 

पति ने दरवाज़ा खोला तो सामने ड्राइवर बल्लू था उसने गाड़ी की साफ़-सफाई के लिए चाबी मांगी तो उसे देखकर पति भुनभुनाये :

“आ गए लौट के गाँव से ... जाते समय पेमेंट मांगकर कह गए थे कि साहब, गाँव में बीबी बच्चों का इन्तजाम करके, दो दिन में लौट आऊंगा और दस दिन लगा दिए…”

 

क्रोधित मालिक के आगे निष्काम और निर्विकार भाव से, स्तब्ध खड़ा ड्रायवर, बस सुनता रहा-

 

“अब फिर बहाने बनोओगे कि फलाने-ढिकाने की तबियत ख़राब हो गई थी.....ये हो गया था या वो वो ..... देखो बल्लू अब ये नहीं चलेगा...... एक तो तुमको पांच हजार की पेमेंट दे..... रोज़ खाना भी खिलाये और तुम ऐसा करों....... अब तुम्हारी पेमेंट से दस दिन का पैसा काटूँगा और नौकरी करना है तो अपने खाने का इंतजाम कर लो

 

उसे कार की चाबी देकर दरवाजा बंद कर दिया पति डाइनिंग टेबल के पास पहुँच गए

पत्नी – “खाना ठंडा है, मैं गरम कर लाती हूँ

पति – “नहीं रहने दो, भूख नहीं है, खाने का मन नहीं कर रहा

पत्नी – “मन तो मेरा भी नहीं है

 

देर तक दोनों मौन बैठे रहे. इस मौन की चुप्पी पति ने तोड़ी.

पति – “बल्लू अब कुछ ज्यादा ही सिर चढ़ गया है

पत्नी- “सही कहा....”

 

फिर चुप्पी.....

पति- “बल्लू कल शाम से ट्रेन में बैठा होगा, आज बारह बजे पहुँचा होगा लगता है अपने कमरे पे नहीं गया, सीधे यहीं आ गया

पत्नी- “मैं भी यही सोच रही थी

पति – “वो कल शाम से भूखा होगा

पत्नी – “हाँ होगा तो....”

पति- “ऐसा करो एक थाली परोस के दे आओ उसे

एक निपुण गृहणी के सधे हाथ अकस्मात ही बड़ी तत्परता से सक्रीय हो गए। 

थाली परोसी और दरवाजा खोलकर बल्लू को आवाज लगाईं बल्लू दौड़ते हुए आया... देखा माता अन्नपूर्णा थाली लिए खड़ी है

आशा और विश्वास से प्रफुल्ल ड्रायवर की कृतज्ञ द्रवित आँखें

 

पत्नी लौटकर आई तो देखा कि पति थाली परोसकर, बड़े ही चाव से ठंडी दाल के साथ ठंडी चपाती खा रहे थे

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by harikishan ojha on January 3, 2015 at 12:07pm

gajab likha hai aap ne 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 2, 2015 at 8:26pm
आपको लघुकथा पसंद आई लिखना सार्थक हुआ। धन्यवाद आदरणीय अनुराग भाई जी
Comment by Anurag Prateek on January 2, 2015 at 7:53pm

man ko chho0 gayaa


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 2, 2015 at 4:11pm
आदरणीय खुर्शीद सर जी आपको यह लघुकथा पसंद आई लिखना सार्थक हुआ। आपने मेरी रचना पर साहित्य की दो महान विभूतियों को याद कर लिया, मुझे प्रेम और प्रसाद मिल गया। आपका स्नेह पाकर अभिभूत हूँ। नमन

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 2, 2015 at 4:03pm
आदरणीय सोमेश भाई जी आपको रचना कहानी जैसी लगी, संभवतः मैं कम शब्दों में अपनी बात कह नहीं पाया तथापि आपकी इस प्रयास की सराहना के लिए हार्दिक आभार। लघुकथा का विस्तार इतना तो किया जा सकता है। शैली और शिल्प पर गुणीजन ही बता सकते है।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 2, 2015 at 3:44pm
आदरणीय डॉ विजय शंकर जी आपकी सराहना और स्नेह से अभिभूत हूँ । हार्दिक आभार धन्यवाद।
Comment by khursheed khairadi on January 2, 2015 at 12:07pm

आदरणीय मिथिलेश जी , मानवीय सदगुणों की पराकाष्ठा का कारुणिक चित्रण लम्बे अंतराल के बाद (प्रेमचंद जी और प्रसाद जी के बाद )

आपकी इस लघु कथा में पढ़ने को मिला है | ऐसी करुणावती  गृहणी घर घर में हो यह सुखद  कथा मन को बहुत भाई |सादर अभिनन्दन 

Comment by somesh kumar on January 2, 2015 at 10:56am

भाई जी ,बेशक से रचना एक द्यामुर्ती मालिक की और ईशारा है ,पर ये रचना ,कहानी जैसी लग रही है ,शायद लघुकथा कम से कम शब्दों में गहरी बात कहने की कला है |जब की कहानी पू रे विस्तार के साथ अपने संदेश को देती है |अच्छी कोशिश है |

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 2, 2015 at 10:01am
आपका प्रयास बहुत ही सराहनीय है, कथा आँखे नम कर देती है , शिल्प समय के साथ निखरता जाएगा।
हम जीवन ऐसे ही जीते हैं , रोज कहीं न कहीं ऐसा ही करते हैं , ऐसा ही होता है , वह व्यवहार है, उसी को जब साहित्य की किसी विधा में परोसते हैं तो वह बहुत गहराई तक छूता जाता है , यही साहित्य है. जो देखता है , उसे सजी थाली सा परोसता है। कई कई स्वादों के साथ।
आप एक साहित्यकार हैं। ठोस पुष्टि हो गयी।
बधाई , प्रिय मिथिलेश वामनकर जी, शुभ शुभ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 1, 2015 at 11:07pm

यह लघुकथा क्या इतिवृत्तात्मक या वर्णनात्मक-शैली में कहलाएगी ?

कृपया ध्यान दे...

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