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मैं सूर्य के गर्भ में पला हूँ

मैं  सूर्य  के

गर्भ में पला हूँ

मैं अपने ही

अंतर्द्वंदों की आग में

तिल -तिल जला हूँ

अनगिनत दी हैं

अग्नि परीक्षायें

और उन क्रूर परीक्षाओं में

हरदम  खरा उतरा हूँ

आसमां से मैं

धरती पर गिरा हूँ 

अपने आप से ही

मैं निरंतर लड़ा हूँ

मैंने प्रसन्नचित्

मर्मान्तक पीड़ा के

पहाड़ को झेला है

हसं हसं कर

आग से खेला है

तपस्वी सा तपा हूँ

नहाया हूँ डूबकर

समुद्र में,मैं

तब अडिग चट्टान सा खड़ा हूँ

अपने ही विस्तार में

मैंने बंधा है काल को

साधा है विष विकराल को 

विष पीया है

अमृत बांटा है 

मनुष्यता के प्यार में

तुम्हें बचाने, मैं

नीलकंठ बन उतरा हूँ !!

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 25, 2014 at 12:45pm

मैंने बंधा है काल को

साधा है विष विकराल को 

विष पीया है

अमृत बांटा है 

मनुष्यता के प्यार में

तुम्हें बचाने, मैं

नीलकंठ बन उतरा हूँ--------------------बेहतरीन  दुबे जी  i आपको बधाई i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 25, 2014 at 12:29pm
वाह सुन्दर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी।

कृपया ध्यान दे...

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