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पीर पंचांग में सिर खपाते रहे ।
गीत की जन्मपत्री बनाते रहे ।
हम सितारों की चैखट पे धरना दिये
स्वप्न की राजधानी सजाते रहे ।

लाख प्रतिबंध पहरे बिठाये गये
शब्द अनुभूतियों के सखा ही रहे
आँसुओं को जरूरत रही इसलिये
दर्द के कांधे के अँगरखा ही रहे
श्वास की बाँसुरी बज उठी जब कभी
हम निगाहें उठाते लजाते रहे।।

पर्वतों से मचलती चली आ रही,
गीत गोविन्द मुग्धा नदी गा रही,
पांखुरी-पांखुरी खिल गई रूप की
भोर लहरा रही, चांदनी गा रही,
ये सरित सिंधु तक यौवना जा सके
आस अच्छे दिनों की लगाते रहे ।

धूप खिलती रही, सांझ ढलती रही
उम्र पर लीक ही लीक चलती रही
पनघटों की जगह लग गये कल मगर
रार पनिहारिनों बीच पलती रही
जान ही ना पड़ा बाल कब पक गये
बेखबर बैल हल में मचाते रहे।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sulabh Agnihotri on September 11, 2014 at 2:56pm

धन्यवाद लड़ीवाला जी !

Comment by Sulabh Agnihotri on September 11, 2014 at 2:55pm

धन्यवाद आकुल जी !

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 10, 2014 at 9:39am

स्वपन की राजधानी में सजे सुंदर शब्द चित्र का ताने बाने से बुनी सुंदर गीत रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री सुलभ अग्निहोत्री जी 

Comment by Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' on September 7, 2014 at 8:49pm

धूप खिलती रही, सांझ ढलती रही
उम्र पर लीक ही लीक चलती रही
पनघटों की जगह लग गये कल मगर
रार पनिहारिनों बीच पलती रही

सुंदर वर्णन। नवगीत सा लगता है गीत। साधुवाद। 

Comment by Sulabh Agnihotri on September 7, 2014 at 7:53pm

हार्दिक आभार ‘राम शिरोमणि पाठक’ जी

Comment by ram shiromani pathak on September 7, 2014 at 7:47pm
अह़ा आनंद आ गया आदरणीय ।।।।बहुत बहुत बधाई आपको
Comment by Sulabh Agnihotri on September 7, 2014 at 6:03pm

धन्यवाद! आदरणीय गोपाल नारायण जी ! शायद मचाना शब्द आपको अटपटा लग रहा होगा। दरअसल हमारी तरफ बैल या किसी भी अन्य जानवर को हल या इक्के या बैलगाड़ी आदि में जोतने के लिये मचाना क्रिया का प्रयोग किया जाता है। एक प्रयोग देखें - जिन्दगी भर गृहस्थी की गाड़ी में बैल जैसे मचे रहे।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 7, 2014 at 12:47pm

सुलभ जी

बहुत ही सुन्दर गीत रचना की आपने i यह आपकी संवेदना का परिचायक है  i   पर अंत में -बेखबर बैल हल  में मचाते  रहे i  यह कुछ अटपटा लगा i

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