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कविता गीत ग़ज़ल रूबाई।

सबने माँ की महिमा गाई।।

जल सा है माँ का मन निर्मल

जलसा है माँ से घर हर पल

हर रँग में रँग जाती है माँ

जल से बन जाता ज्‍यों शतदल

माँ गंगाजल, माँ तुलसीदल

माँ गुलाबजल, माँ है संदल

जल-थल-नभ, क्‍या गहरी खाई।

माँ की कभी नहीं हद पाई।

कविता गीत----------------

माँ फूलों की बगिया जैसी

रंगों में केसरिया जैसी

माँ भोजन में दलिया जैसी

माँ गीतों में रसिया जैसी

माँ वीरा, माँ धी, माँ बहना

माँ अनमोल जड़ी, माँ गहना।

रूप स्‍वरूप धरे जब-जब भी

दूध दही मक्‍खन सी पाई।

कविता गीत-------------------

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 21, 2014 at 3:33pm

आदरणीय गोपाल जी ..माँ की महिमा का खूबसूरत चित्रण किया है आपने ..आपकी रचना बेहद पसंद आयी 

माँ भोजन में दलिया जैसी

माँ गीतों में रसिया जैसी

माँ वीरा, माँ धी, माँ बहना

माँ अनमोल जड़ी, माँ गहना। ये पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगी ..इस शानदार रचना  के लिए तहे दिल बधाई सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 21, 2014 at 8:53am
कविता गीत ग़ज़ल रूबाई।
सबने माँ की महिमा गाई।।
बहुत सुन्दर , कुछ जोडू ,
फिर भी ये निष्ठुर दुनिया
माँ महिमा जान न पाई ॥
बहुत आकर्षक रचना है आदरणीय डॉ o गोपाल कृष्ण भट्ट जी , बधाई।

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