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प्रेम भाव के सेतु बन्ध में..

नवगीत

प्रेम भाव के सेतु बन्ध में,
कुटिल नीति के खम्भ गड़े हैं।

गहन सिंधु से मुक्त हुआ रवि,
पथ पर पर्वत अटल अड़े है।
प्रजातंत्र की जड़े हिला कर,
स्वर्ण कवच में सजल खड़े है।।1

कर लम्बे अति प्रखर सोच रति
तीक्ष्ण बाण से भीष्म बिंधे है।
श्वांस-श्वांस चलती लू-अंधड़,
संशय मन में प्रश्न बड़े हैं।।2

छलक रहे नित अश्रु गाल पर,
शुष्क होंठ भी सिले हुए हैं।
भाव-वचन पर शोध नही जब,
चींख रहे जन तंग घड़े है।।3

जीवन के पथ कोलतार ज्यों,
छाले बन नित पिघल रहें हैं।
रिश्ते - नाते  जाल  बुने  यों
सॉंझ सूर्य भव कूप पड़ें है।।4

के0पी0सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by ram shiromani pathak on August 17, 2014 at 10:27am

वाह भाई केवल प्रसाद जी बहुत ही प्यारी रचना। ........      हार्दिक बधाई आपको

Comment by kalpna mishra bajpai on August 13, 2014 at 11:31pm

छलक रहे नित अश्रु गाल पर, शुष्क होंठ भी सिले हुए हैं।.................... बहुत सुंदर रचना के लिए आप को हार्दिक बधाई//सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 12, 2014 at 8:15pm

सत्यम जी

बहुत सुन्दर रचना i क्या बात है ?

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