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ग़ज़ल - अदावत भी हमी से, हमदमी भी ( गिरिराज भन्डारी )

1222     1222      122  ---  

कभी महसूस कर मेरी कमी भी

तेरी आँखों में हो थोड़ी नमी भी

 

नदी की धार सी पीड़ा बही, पर

किनारों के दिलों में क्या जमी भी ?

 

खुशी तो है उजालों की, मगर क्यों

कहीं बाक़ी दिखी है बरहमी* भी     ( खिन्नता )

 

उड़ाने आसमानी भी रखो पर

तुम्हे महसूस होती हो ज़मी भी

 

ये रिश्ता किस तरह का है बताओ ?

अदावत* भी हमी से, हमदमी भी       ( दुश्मनी )

 

उफ़क पे देख लाली है खुशी पर

हवायें लग रहीं हैं कुछ थमी भी  

 

मुझे अफ़सोस है सारे इरादे 

अभी कमज़ोर हैं, कुछ मौसमी भी

******************************** 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

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Comment by वेदिका on July 20, 2014 at 8:37pm
उड़ाने आसमानी भी रखो पर
तुम्हे महसूस होती हो ज़मी भी // आहा!!
बढ़िया गजल! हार्दिक बधाई!
Comment by Santlal Karun on July 20, 2014 at 8:17pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी,

आज-कल के जीवनगत आचार-व्यवहार पर उम्दा ग़ज़ल; हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! --

"ये रिश्ता किस तरह का है बताओ ?

अदावत* भी हमी से, हमदमी भी"     

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