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नवगीत - शशि पुरवार

हस्ताक्षर की कही कहानी
चुपके से गलियारों ने
मिर्च मसाला , बनती ख़बरें
छपी सुबह अखबारों में.

राजमहल में बसी रौशनी
भारी भरकम खर्चा है
महँगाई ने बाँह मरोड़ी
झोपड़ियों की चर्चा है
रक्षक ही भक्षक बन बैठे है
खुले आम दरबारों में.

अपनेपन की नदियाँ सूखी,
सूखा खून शिराओं में
रूखे रूखे आखर झरते
कंकर फँसा निगाहों में
बनावटी है मीठी वाणी
उदासीनता व्यवहारों में.

किस पतंग की डोर कटी है
किसने पेंच लडाये है
दांव पेंच के बनते जाले
सभ्यता पर घिर आये है

आँखे गड़ी हुई खिड़की पर
होठ नये आकारों में.

मौलिक और अप्रकाशित

--शशि पुरवार

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Comment by शिज्जु "शकूर" on July 11, 2014 at 10:09am

बहुत खूब आदरणीय शशिजी बहुत सुंदर गीत है सादर बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 10, 2014 at 9:26pm

अपनेपन की नदियाँ सूखी,
सूखा खून शिराओं में 
रूखे रूखे आखर झरते 
कंकर फँसा निगाहों में
बनावटी है मीठी वाणी
उदासीनता व्यवहारों में.....वाह बहुत सुन्दर प्रस्तुति प्रिय शशि बहुत- बहुत बधाई 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 10, 2014 at 8:45pm

अपनेपन की नदियाँ सूखी,
सूखा खून शिराओं में
रूखे रूखे आखर झरते
कंकर फँसा निगाहों में-------- अतीव सुन्दर i  बधाई i

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