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पंखुड़ियाँ सब कुचल दिए

पंखुड़ियाँ सब कुचल दिए

===============

एक कली जो खिलने को थी

कुछ सहमी सकुचाई भय में 

पंखुड़ियाँ सब कुचल दिए

------------------------

कितनी सुन्दर धरा हमारी

चंदन सा रज महके

चह-चह चहकें  चिड़ियाँ कितनी 

बाघ-हिरन  संग विचरें

हिम-हिमगिरि वन कानन सारे

शांत स्निग्ध सब सहते

महावीर थे बुद्ध यहीं पर

बड़े महात्मा, हँस सब शूली चढ़ते

स्वर्ग सा सुन्दर भारत भू को

पूजनीय सब बना गए

पर आज ..

एक कली जो खिलने को थी

कुछ सहमी सकुचाई भय में 

पंखुड़ियाँ सब कुचल दिए

==========================

इतना सुन्दर चमन हमारा

हरी भरी कितनी हैं क्यारी

इतने श्रम से कितने पौधे

उगे बढे हैं नेह पली कुछ न्यारी

भोर हुए मलयानिल आती

सूरज किरणें इन्हे जगातीं

हलरातीं-दुलरातीं खिल-खिल

कभी गिराती -कभी उठातीं

प्रकृति सुरम्या ममता आँचल

गोदी भर -भर इन्हे सुलातीं

आसमान से परियाँ आ-आ

इतनी ख़ुशी विखेर गयीं

पर आज ....

एक कली जो खिलने को थी

कुछ सहमी सकुचाई भय में 

पंखुड़ियाँ सब कुचल दिए

===========================

फूल के संग-संग काँटे कुछ थे

कर्कश पत्थर से कठोर थे

प्रकृति की लीला -इन्हे चुने थे -

रक्षा को ! बन कवच खड़े थे

हाथ बढे जो छेड़ -छाड़ को

निज स्वभाव से चुभ-चुभ जाते

अतिशय कोई आतातायी

हानि भांप ये उन्हें भगाते

सावन सी हरियाली बगिया

फूल खिले हँस सभी लुभाते

कलरव करते कोई गाते-आते-जाते

'भ्रमर' भी गुंजन खुश हो आते

विश्व-कर्म रचना अति सुन्दर

गुल-गुलशन सब महक गए

पर आज ...

एक कली जो खिलने को थी

कुछ सहमी सकुचाई भय में 

पंखुड़ियाँ सब कुचल दिए

=========================

भोली -भाली प्यारी छवि थी

पर फ़ैलाने को थी आतुर

फूलों की जी जान से प्यारी

अल्हड़ थी ना हुयी चतुर

स्वर्णिम लगती इस दुनिया में

चकाचौंध है लोहा - पीतल

पार्वती-संग है गंधक भी -

वदन जला दे ! गंगा शीतल

है प्रकाश तो अन्धकार भी

मोह -पाश माया - दानव हैं

स्नेह कहीं बहता है अविरल

दानव के पंजे में फँस कर

रोई वो चिल्लाई दम भर 

प्रेम-दुहाई – सब- देव देवियाँ

पाँव पडी कातर नैनों से

एक-एक कर तितर वितर कर

पंखुड़ियाँ सब तोड़  दिए

कुचल -मसल के रक्त -अंग सब

वेशर्मी अति शूली पर थे टांग दिए

मानवता थी आज मर गयी

बस कलंक वे छोड़ गए

कानों में है क्रंदन अब तो…

एक कली जो खिलने को थी

कुछ सहमी सकुचाई भय में 

पंखुड़ियाँ सब कुचल दिए

=========================

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर ५ '

कुल्लू हिमाचल

भारत

11.45 A.M. -12.15 P.M.

08.06.2014

Views: 645

Comment

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Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on June 26, 2014 at 4:56pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण जी सच कहा आप ने कि ये संवेदना आज लोगों की जरुरत है काश लोग पत्थर न बने और अपने मानव दिल को मानवीय कार्यों में लगाएं तो आनंद और आये
आभार
भ्रमर ५

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 26, 2014 at 12:19pm

भ्रमर जी

आपकी संवेदना आज की जरूरत है i काश ,  लोग इस बारे मेसोंचे i आपकी कविता इस दिशा में जगाती है i

कृपया ध्यान दे...

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