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तुम हर पल जीतना चाहते हो
हारना तुम्हारी फितरत में नहीं है
कोई तुम्हारी युद्ध से
लौटी तलवार को
छूना नहीं चाहता
तुम्हारे रक्त-रंजित  हाथ
अब तुम्हारी माँ भी
नहीं पहचानती.
तुम्हारे बाल सखा कबके
विलीन हो गए रणभूमि में
तुम्हारी जीत के लिए.
कोई तुम्हारे कमजोर
पलों में
साथ नहीं देना चाहता
इतनी जीत का क्या करोगे?

डॉ. विजय प्रकाश शर्मा

(मौलिक व अप्रकाशित )
 

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Comment

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Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 11, 2014 at 12:50pm

धन्यवाद जितेंद्र जी.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 11, 2014 at 11:54am

इंसान ने कभी जीत कर कहाँ कुछ पाया है, बहुत प्रभावशाली पंक्तियाँ. बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय प्रकाश जी

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 11, 2014 at 11:20am

आपका बहुत बहुत आभार डॉ. प्राची


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 11, 2014 at 10:32am

बहुत खूबसूरत चिंतन प्रधान रचना 

ऐसी जीत भी वास्तव में किस काम की जहां कोइ अपना ही साथ न हो...

हारना तेरी फितरत में ही नहीं...... मुझे लगता है यहाँ 'तेरी' की जगह तुम्हारी होना चाहिए 

रक्त रंजित में भी टंकण त्रुटी रह गयी है, कृपया सही कर लें 

इस प्रस्तुति पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारिये आ० विजय प्रकाश शर्मा जी 

कृपया ध्यान दे...

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