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प्यार भी करते हो …

प्यार भी करते हो …

प्यार भी करते हो तो शर्तों पे करते हो
लगता है तुम शायद मुहब्बत के अंजाम से डरते हो
क्यों मुड़ मुड़ के अपने निशां तका करते हो
क्यों ज़माने के खौफ को दिल में रखा करते हो
कभी इकरार से तो कभी इंकार से डरते हो
न, न
ऐसे तो प्यार न हो पायेगा
पानी के बुलबुले सा ये प्यार
वक्त की लहरों में खो जाएगा
अहसास कभी शर्तों में समेटे नहीँ जाते
शर्त और सौदे तो बाज़ारों में हुआ करते हैं
समर्पण बाज़ारों में कहां हुआ करते हैँ
इससे पहले कि
पाक लम्हों में कैद अहसास
शर्त की कोठरी मे घुट के दम तोङ देँ
आओ,
अपने स्वीकार को शर्त के बन्धन से मुक्त करें
इक दूजे में समाहित होकर
स्वयं को हार और जीत के भाव से विरक्त करें
मैं और तुम

हम का निर्माण करें
इक दूजे के स्पर्शों में खुद समेटें
खुद अपने पलों पे अभिमान करें

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 429

Comment

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Comment by Sushil Sarna on May 29, 2014 at 2:24pm

आदरणीय डॉ प्राची सिंह  जी  रचना पर आपकी आत्मीय  प्रशंसात्मक अभिव्यक्ति  का हार्दिक आभार।  नेट व्यवधान के कारण आभार व्यक्त करने में विलम्ब के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 27, 2014 at 12:01pm

आदरणीय सुशील सरना जी 

बहुत सही बात कही....

ऐसे तो प्यार न हो पायेगा
पानी के बुलबुले सा ये प्यार
वक्त की लहरों में खो जाएगा
अहसास कभी शर्तों में समेटे नहीँ जाते
शर्त और सौदे तो बाज़ारों में हुआ करते हैं
समर्पण बाज़ारों में कहां हुआ करते हैँ

जिस निःस्वार्थ कोमल भाव से आप ये रचना लिख गए हैं...उस पर बहुत बहुत बधाई स्वीकारिये 

शुभकामनाएं 

Comment by Sushil Sarna on May 20, 2014 at 2:23pm

आदरणीय    मदन मोहन सक्सेना  जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार 

Comment by Madan Mohan saxena on May 19, 2014 at 4:57pm

बहुत खूब,सुन्दर

Comment by Sushil Sarna on May 19, 2014 at 11:35am

आदरणीया मीना  पाठक  जी रचना पर आपकी स्नेहात्मक प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। नेट व्यवधान के कारण आभार प्रगट करने में विलम्ब हुआ,   क्षमा चाहूंगा। 

Comment by Sushil Sarna on May 19, 2014 at 11:34am

आदरणीय  जितेन्द्र गीत  जी रचना पर आपकी स्नेहात्मक प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। नेट व्यवधान के कारण आभार प्रगट करने में विलम्ब हुआ,   क्षमा चाहूंगा। 

Comment by Meena Pathak on May 18, 2014 at 7:47pm

बहुत बहुत सुन्दर रचना .. बधाई आदरणीय 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 16, 2014 at 11:02pm

अपने स्वीकार को शर्त के बन्धन से मुक्त करें
इक दूजे में समाहित होकर
स्वयं को हार और जीत के भाव से विरक्त करें
मैं और तुम हम का निर्माण करें
इक दूजे के स्पर्शों में खुद समेटें
खुद अपने पलों पे अभिमान करें............सच! यही सच्ची जीत है 'हमारे' सफल जीवन की

बहुत ही सुंदर रचना आदरणीय शुशील जी, हार्दिक बधाई आपको

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