For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही (ग़ज़ल 'राज')

2122   2122     212

वक़्त की रफ़्तार तो पैहम  रही

जिंदगी की लौ मगर मद्धम रही

 

बर्फ बनकर अब्र जो है गिर रहा 

पीर की बहती नदी भी जम रही

 

ग़म भरे अशआर जिसमे थे लिखे

धूप में भी वो ग़ज़ल कुछ नम रही

 

टूट के बिखरे सभी वो आईने

रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही 

 

वक़्त रहते कुछ नहीं हासिल किया

सोचते हैं जिंदगी कुछ कम रही

 

कैसे कह दें वो जहाँ में खुश रहे

आँखे उनकी तो सदा पुरनम रही

 

क्यों दरारें फिर पड़ी उसके निहाँ

जब झड़ी बरसात की झम-झम रही

 

धूप में गुजरी कभी या छाँव में

जिंदगी खद्दर कभी रेशम रही

 

मुफ़लिसी का दर्द वो समझा कहाँ

जब तलक दौलत चमक चम-चम रही

________________________

 

 मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

 पैहम =निरंतर 

अब्र =बादल 

मुफ़लिसी =गरीबी ,निर्धनता ,या अभाव का भाव 

निहाँ=अन्दर 

 

Views: 843

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2014 at 3:18pm

इमरान भाई जी आपका मशविरा स्वागत योग्य है (मेरा भाव मतले में यूँ था की वक़्त की रफ़्तार मानो थम रही (assumption in present ) ...किन्तु आपकी राय में स्पष्टता कम है तो आपके परामर्श का स्वागत है ..पैहम शब्द भी जंच रहा है

दूसरे शेर में थोडा सा बदलाव करुँगी  --बर्फ बनकर अब्र जो है  गिर रहा
पीर की बहती नदी भी जम रही---ऐसा करने से काल दोष दूर हो जाएगा ...बहुत बहुत धन्यवाद जो मेरा ध्यान इस ओर आकृष्ट किया .

Comment by Sachin Dev on April 15, 2014 at 3:03pm

वक़्त रहते कुछ नहीं हासिल किया

सोचते हैं जिंदगी कुछ कम रही............. बहुत खूब शेर ... और सभी एक से बढकर एक हार्दिक बधाई आपको आदरणीय ! 

Comment by इमरान खान on April 15, 2014 at 2:52pm
बेहद खूबसूरत गज़ल हुई है राजेश कुमारी साहिबा
मुफलिसी और रेशम वाले अशआर बेहद पसन्द आये, दाद कबूल करें

इन दोनों अशआर को फिर देखिएगा,

वक़्त की रफ़्तार जैसे थम रही
जिंदगी की लौ बड़ी मद्धम रही
बर्फ बनकर अब्र जो गिरता रहा
पीर की बहती नदी भी जम रही

थम रही और जम रही दोनों ही यहाँ जम नहीं रहे हैं। थम रही है, थम गई या थमती गई ये व्याकरण की दृष्टि से सही हैं। या मैं अपके नज़रिये से मफहूम नहीं निकाल पा रहा हूँ शायद। दोनों अशआर के मफहूम बताने की मेहरबानी फरमायें।

अगर आपके मतले को इस तरह कहा जाये तो? बताइयेगा।
वक्त की रफ्तार तो पैहम रही,
जिन्दगी की लौ मगर मद्धम रही।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2014 at 2:36pm

आ० मीना पाठक जी तहे दिल से आभार आपका.सस्नेह  

Comment by Meena Pathak on April 15, 2014 at 2:32pm

बहुत सुन्दर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2014 at 2:24pm

प्रिय गीतिका जी आपसे  तारीफ पाकर ग़ज़ल धन्य हुई ,तहे दिल से आभारी हूँ .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2014 at 2:23pm

भुवन निस्तेज जी, तहे दिल से आपका शुक्रिया. 

Comment by वेदिका on April 15, 2014 at 2:08pm
मुफ़लिसी का दर्द वो समझा कहाँ
जब तलक दौलत चमक चम-चम रही//
वाह! बहुत खूब शेअर
शानदार गजल पर शुभकामनाएं आ0 राजेश दीदी जी
Comment by भुवन निस्तेज on April 15, 2014 at 1:59pm

इस अद्भुत ग़ज़ल के लिये बधाइयाँ स्वीकारें ....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2014 at 1:43pm

नीरज मिश्रा जी मुफ़लिसी का अर्थ ---

  1. मुफलिस होने की अवस्था या भाव।
  2. गरीबी
  3. निर्धनता

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आदरणीय सौरभ सर, गाली की रदीफ और ये काफिया। क्या ही खूब ग़ज़ल कही है। इस शानदार प्रस्तुति हेतु…"
1 hour ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .इसरार

दोहा पंचक. . . .  इसरारलब से लब का फासला, दिल को नहीं कबूल ।उल्फत में चलते नहीं, अश्कों भरे उसूल…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सौरभ सर, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। आयोजन में सहभागिता को प्राथमिकता देते…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सुशील सरना जी इस भावपूर्ण प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। प्रदत्त विषय को सार्थक करती बहुत…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त विषय अनुरूप इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। गीत के स्थायी…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सुशील सरनाजी, आपकी भाव-विह्वल करती प्रस्तुति ने नम कर दिया. यह सच है, संततियों की अस्मिता…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आधुनिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में माता के दायित्व और उसके ममत्व का बखान प्रस्तुत रचना में ऊभर करा…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय मिथिलेश भाई, पटल के आयोजनों में आपकी शारद सहभागिता सदा ही प्रभावी हुआ करती…"
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"माँ   .... बताओ नतुम कहाँ होमाँ दीवारों मेंस्याह रातों मेंअकेली बातों मेंआंसूओं…"
Sunday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"माँ की नहीं धरा कोई तुलना है  माँ तो माँ है, देवी होती है ! माँ जननी है सब कुछ देती…"
Saturday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय विमलेश वामनकर साहब,  आपके गीत का मुखड़ा या कहूँ, स्थायी मुझे स्पष्ट नहीं हो सका,…"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service