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रेत  उड़ती  रही  धरा  बेबस

गजल -  2122, 1212, 22

पथ के पत्थर कहे परी हो क्या?
ठोकरों से कभी बची हो क्या ?


रात  ठहरी  हुयी   सितारों  में,
दोस्तों, चॉंद की खुशी हो क्या ?


लूटते  रोशनी  अमावस  जो,
दास्तां आज भी सही हो क्या ?


आदमी धर्म - जाति का खंजर,
आग ही आग आदमी हो क्या ?


रोशनी आज भी नहीं आयी,
राह की भीड़ में फसी हो क्या ?


रेत  उड़ती  रही  धरा  बेबस,
अब हवा धूप आदमी हो क्या ?


दास्तां  राज  की  जुबां  चुप  है,
शब्द सीने  में ढ़ूंढ़ती  हो क्या ?


के0पी0सत्यम-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 3, 2014 at 6:58pm

आ0 सौरभ सर जी, सादर प्रणाम! सर जी आप की राय से मैं भी सहमत हूँं।  एक बात स्पष्ट है कि मेरा मंतव्य कुछ ज्यादा मेहनत मांगता है। वैसे इन शेरों को मैंने ही छॉंट दिया था, किन्तु बाद में आंशिक संशोधन के बाद अजमाया, चूॅंकि अभी गजल पर विश्वास दृढ़ नहीं हो पाया है। इसलिए ही यह प्रस्तुति झलक सकी। भविष्य में ध्यान रखंूगा।  आपकी उप-िस्थति हेतु तहेदिल से आभार।  सादर, 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 3, 2014 at 11:13am

केवल भाई, मैं भाई अरुन अनन्त जी के कहे से सहमति जता रहा हूँ. बह्र के अनुसार कुछ शब्द लगे हैं, मुझे अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाया.

वैसे मैं कुछ और प्रयास करूँगा.

शुभेच्छाएँ

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 27, 2014 at 6:59pm

आ0 अरून अनन्त भाई,   आपके मार्गदर्शन को गंभीरता से लेने हेतु प्रतिबध्द हूं। किन्तु कुछ बात तो अवश्य है, जो यह गजल पास हो गई।  आपके स्नेह और उदारता हेतु आपका बहुत बहुत आभार।  सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 27, 2014 at 6:57pm
आ0 सचिन भाई, आपके स्नेह हेतु आपका बहुत बहुत आभार। सादर,
Comment by अरुन 'अनन्त' on March 27, 2014 at 3:22pm

आदरणीय केवल भाई जी अन्यथा मत लीजियेगा मैंने आपकी ग़ज़ल तीन - चार दफा पढ़ी किन्तु स्पष्ट नहीं लगी आपके ख्याल से मेरे ख्याल मेल नहीं खाए या फिर अल्पमत के कारण मेरे पल्ले नहीं पड़ी. क्षमा चाहता हूँ

Comment by Sachin Dev on March 26, 2014 at 1:28pm

बहुत खूबसूरत गजल आदरणीय भाई केवल प्रसाद जी .... हार्दिक बधाई आपको 

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