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ऐसी झीलों में मुहब्बत के कमल खिलते हैं (ग़ज़ल 'राज')

2122   1122     1122    22

अब्र चाहत के जहाँ दिल से करम करते हैं  

ऐसी झीलों में मुहब्बत के कँवल  झरते हैं

 

मजहबी छीटें रकाबत के जहाँ पर गिरते     

उन तड़ागों के बदन मैले हुआ करते हैं

 

बस गए हैं जो बिना खौफ़ विषैले अजगर    

वादियों में वो सभी आज जह्र भरते हैं  

 

मस्त भँवरों की शरारत की यहाँ अनदेखी  

फूल पत्तों पे चढ़ी दर्द भरी परते हैं   

 

सौदे बाजों की बगल में हुई आहट सुनकर

धीमे-धीमे वो चिनारों के शज़र मरते हैं 

 

उन्स के फूलों भरी कल थी जहाँ पगडंडी 

आज रस्ते वो सभी  खारो से संवरते हैं  

 

एक ही घर में पले मिलके रहे जो प्राणी    

छोड़ अपनों की कतारों को अलग चरते हैं

 

दर्द जीवन का छुपाये हुए हैं जो  साग़र

रूप ग़ज़लों का वही आज यहाँ धरते हैं  

 

उनको किस्मत के भरोसे न मिलेगी मंजिल

शख्स जो दूर किनारों पे खड़े डरते हैं  

.

रकाबत =शत्रुता

उन्स =चाहत

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

**********

 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 2, 2014 at 12:53pm

प्रिय प्राची जी ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना से हर्षित हूँ आपको शेर प्रभावित कर सके मेरा लिखा सार्थक हुआ तहे दिल से आपका बहुत बहुत शुक्रिया ,आपने जो तड़ागों शब्द और रकाबत शब्द की बात कही है ,पहले मैंने तलाबों शब्द रखा था किन्तु  संशय था की तालाबों को तलाबों कर सकते हैं या नहीं बस फिर उसे छोड़ कर तड़ागों लिखा है यह बात में ग़ज़लकारों से कन्फर्म करुँगी की तलाबों चलेगा या नहीं तभी ठीक करुँगी ,वैसे मेरे संज्ञान में तो ऐसा नियम तो कोई है नहीं की उर्दू के साथ यदि कोई हिंदी शब्द ले रहें हैं तो वो मान्य नहीं होगा बाकी विद्वद्जनो की राय की प्रतीक्षा है.  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2014 at 6:21pm

सुन्दर ग़ज़ल हुई है आ० राजेश जी 

उन्स के फूलों भरी कल थी जहाँ पगडंडी 

आज रस्ते वो सभी  खारो से संवरते हैं .................बहुत सुन्दर 

उनको किस्मत के भरोसे न मिलेगी मंजिल

शख्स जो दूर किनारों पे खड़े डरते हैं ..................बिलकुल सही कहा 

मजहबी छीटें रकाबत के जहाँ पर गिरते     

उन तड़ागों के बदन मैले हुआ करते हैं.....................रकाबत एक उर्दूं का शब्द और तड़ागों एक तत्सम शब्द; क्या एक ही शेर में इतना कंट्रास्ट लेना सही है?

इस ग़ज़ल पर मेरी दिली बधाई स्वीकारें 

सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 28, 2014 at 9:42am

आ० सौरभ जी, ग़ज़ल पर   उत्साह वर्धन करती हुई आपकी प्रतिक्रिया मिली तहे दिल से आभार आपका. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 28, 2014 at 2:09am

उन्स के फूलों भरी कल थी जहाँ पगडंडी 

आज रस्ते वो सभी  खारो से संवरते हैं .. . .

जय हो !!

आपकी इस ग़ज़ल पर ढेर सारी बधाई. शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 26, 2014 at 8:52pm

मुकेश वर्मा जी बहुत- बहुत शुक्रिया. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 26, 2014 at 8:51pm

सादर आभार आ० गिरिराज भंडारी जी ,अब इस ग़ज़ल को आ० वीनस जी की इस्स्लाह के अनुसार बह्र पर कसा है पुनः अवलोकन की गुजारिश है.  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 24, 2014 at 6:20pm

आदरणीया राजेश जी , ग़ज़ल बहुत सुन्दर कही है आपने , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ आ. वीनस भाई की सलाह पर गौर फरमाइयेगा ॥

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on March 24, 2014 at 4:13pm

वीनस केसरी जी की बात से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ. बे'हर है २१२२ २१२२ २१२२ २१२.. पर आपकी बेहतरीन कोशिश को भी दाद देनी पड़ेगी..लिखते रहिए


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 24, 2014 at 9:22am

आ० वीनस जी ग़ज़ल पर आपका मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ इसे दुरुस्त करने की कोशिश करती हूँ ,बहुत- बहुत शुक्रिया आपका. 

Comment by वीनस केसरी on March 24, 2014 at 12:49am

ग़ज़ल अपने कथ्य से प्रभावित करती है जिसके लिए आपको बधाई प्रेषित है परन्तु आपने बहर भी सही नहीं लिखी है ...इता दोष भी दिख रहा है ... और लय अनुसार आपने इस ग़ज़ल को जिस बहर पर लिखा है उसके अनुसार कई अशआर बेबहर हो जा रहे हैं

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