मन तरसे
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 तन तरसे मन तरसे . 
 होली का रंग बरसे .
मै हो गई प्रेम दीवानी 
 मुझे देख मधुकर हरषे .
 फूल गई सब कालिया 
 मै सुखी निकली घर से .
कोयल कूके पपीहा गाए 
 भटकी मै बावरी घर से .
लगी हुई विरह वेदना 
 इलाज नहीं होता हर से .
मेरे प्रियत्तम आ जाओ
मिटे वेदना उस पल से .
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मौलिक व अप्रकाशित"
 ओमप्रकाश क्षत्रिय ''प्रकाश''
Comment
मीना पाठक जी आप की प्रतिक्रिया के लिए आभार
आदरणीय ओमप्रकाशजी इस कविता के लिये बधाई स्वीकार करें
Omprakash Kshatriya... आपने मन के भावों को अच्छी तरह से प्रकट किया है।
बहुत बधाई
किन्तु मेरे विचार से मधुकर कृष्ण का नाम नहीं है..उद्धव का नाम अवश्य भ्रमर है..कृष्ण को तो मधुसूदन कहते हैं..किसी प्रकार का विम्ब भी नहीं लग रहा..खैर..यदि यह कृष्ण है तो अच्छा है..एक बार पुनः बधाई हो..
भाई मनोज सिंह जी ' मयंक ' आप की प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ .
मै हो गई प्रेम दीवानी 
मुझे देख मधुकर हरषे ..............कृष्ण भगवान गोपियों के विरह पर मंद मंद मुस्करा का हसते है . यह उसी संदर्भ में है 
अच्छा है भाई..थोडा और अच्छा किया जा सकता था..और मुझे देख मधुकर हरषे वाली बात समझ में नहीं आ पायी..बधाई हो
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