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अब हरियल नहीं देगी अंडे ..

इस कविता के पूर्व थोड़ी सी प्रस्तावना मैं आवश्यक समझता हूँ. झारखंड के चाईबासा में सारंडा का जंगल एशिया का सबसे बड़ा साल (सखुआ)  का जंगल है , बहुत घना . यहाँ पलाश के वृक्ष से जब पुष्प धरती पर गिरते हैं तो पूरी धरती सुन्दर लाल कालीन सी लगती है . इस सारंडा में लौह अयस्क का बहुत बड़ा भण्डार है , जिसका दोहन येन केन प्राकारेण करने की चेष्टा की जा रही है .. इसी सन्दर्भ में है मेरी यह कविता :

सारंडा के घने जंगलों में

जहाँ सूरज भी आता है

शरमाते हुए,

सखुआ वृक्ष के  घने पत्रों ,

लताओं में छुपता छुपाता. 

जहाँ प्रकृति बिछाती है टेसू, मानो

धरती पर बिछा हो  लाल कालीन

विशिष्ट आगत के स्वागत में.

वहीँ, बरगद के कटोर  में

हरियल ने दिए है

उम्मीद के अंडे .

कटोर  के अन्दर है हलचल

चूजे सीख रहे हैं पंख फडफडाना.

वे भी उड़ेंगे

नापेंगे गगन का विस्तार .

स्वतंत्रता की गुनगुनी धुप में

बेलौस उड़ने का

अपना ही आनंद है ..

लेकिन पड़ती है खलल,

एक दैत्याकार सूअर को

खानी है बरगद की जड़.

वह बनना चाहता है

और मोटा , और बड़ा

वह खोद डालता है बरगद की जड़ को

उलट देता है दरख्त.

जंगल के क़ानून में हरियल

हासिये पर है .

वह करता है प्रतिरोध,

अपने चूजों को

बचाने का असफल प्रयास.

लेकिन रहता है विफल.

उजड़े हुए दरख़्त के साथ ही

समाप्त हो जाती है

हरियल और उसके चूजों की

जीवन गाथा.

अंत होता है एक सभ्यता का.

पलाश के फूलों का रंग

पड़ गया है काला .

रक्त सुख कर

काला हो जाता है .

अब कोई हरियल

सारंडा में नहीं देगी अंडे ..

... नीरज कुमार नीर

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Neeraj Neer on February 19, 2014 at 7:47pm

आदरणीय अरुण श्रीवास्तव जी आपका हार्दिक आभार .. रचना आपको पसंद आई तो लिखना सार्थक हुआ.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 18, 2014 at 8:35pm

आदरणीय नीरज जी बहुत बढ़िया कविता है बधाई आपको

Comment by Arun Sri on February 18, 2014 at 12:03pm

समर्थों का अंधी महत्वाकांक्षा से प्रेरित व्यवहार सभ्यताओं के विनाश का कारण तो बनता ही है ! अंततः नष्ट हो जाती एक समर्थ सत्ता भी  अपने ही अतिक्रमण के कारण ! चेताती हुई कविता ! सुन्दर !

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