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आस बांधे खड़ा था

धूप से तन जल रहा था 

जेष्ठ भी तो तप रहा था

आस थी बरसात की

प्यास थी एक बूंद की

आ गिरेगी शीश पर

तृप्त होगी देह तब

यह सोच कर उत्साह मन में हो रहा था

घन-घटा चहूँ ओर छाती जा रही थी

मलय शीतल उमड़-घुमड़ के बह रही थी 

मेघ घिर-घिर आ रहे थे

मोर भी संदेश मीठा दे रहे थे

हर्ष दिल में हो रहा था

आनंद से छोटे बड़े सब घूमते

बाल मन से थे धरा को चूमते

एक दूसरे से मिल रहे जैसे गले

उल्लास चहूँ दिश हो रहा था 

बरखा रानी बैठ कर

मेघों के रथ पर झूमके

धो दिये सब के बदन

कर दिये शीतल ह्रदय

हम मिल रहे उन से गले

जैसे मिले शिशु मातु से

पूरी हुई सब आस मन की

मिट गए सब गिले सिकवे

कल्पना मिश्रा बाजपेई

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on February 14, 2014 at 11:48pm

सुंदर भाव पूर्ण रचना , बधाई आपको कल्पना जी । 

Comment by kalpna mishra bajpai on February 14, 2014 at 9:18pm

आप सभी का बहुत-बहुत आभार 

Comment by रमेश कुमार चौहान on February 10, 2014 at 8:54pm

भावपूर्ण रचना के लिये बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 10, 2014 at 6:13pm

आदरणीया कल्पना जी , सुन्दर प्रस्तुति के लिये आपको बधाइयाँ ॥

Comment by coontee mukerji on February 10, 2014 at 3:50pm

बहुत सुंदर भाव है...कल्पना जी हार्दिक बधाई.

Comment by अरुन 'अनन्त' on February 10, 2014 at 1:23pm

आदरणीया कल्पना जी बहुत सुन्दर रचना आपको बधाई

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