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साथ (अखंड गहमरी)

अपनो से दूर

अपने पराये

पराये अपने

चुटकी भर

सिंदूर से

पास मेरे

तन मन

अर्पण

मैं सुखी

उसकी खुशी

हर चाहते

सपने उमंग

चेहरे पर तेज

हर पल साथ

साँसो के साथ

मेरे अपने

उसके अपने

निर्स्‍वाथ सेवा

हम दो शब्‍द

प्‍यार के नहीं

जज्‍बातो से खेलते

हर सपने तोड़ते

शिव है हम

मगर वह सीता

सह गयी जुल्‍म

मगर ना मिला

राम को चैन

पुरूर्षाथ अधूरा

वह अनेक रूपों में

आज तक

चल रही

निभा रही

आशा

विश्‍वास

निर्स्‍वाथ

हर रिश्‍ते, हर फर्ज

मेरे साथ

दिखा रही

अँधेरो में रास्‍ता

कोशिश बचाने की

सम्‍मान दिलाने की

हमारी अर्धागिनी

मेरी जीवन संगिनी

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Meena Pathak on January 9, 2014 at 12:28pm

बहुत सुन्दर, लाजवाब रचना हेतु ढेरों बधाई आप को आ० अखंड जी 

Comment by savitamishra on January 9, 2014 at 10:41am

बहुत बढ़िया

Comment by Akhand Gahmari on January 8, 2014 at 11:06pm

आदरणीया coontee mukerji  जी मार्गदर्शन एवं उत्‍साहवर्धन के सदैव आकांक्षी है प्रणाम स्‍वीकार करें

Comment by Akhand Gahmari on January 8, 2014 at 11:06pm

आदरणीय Abhinav Arun जी मार्गदर्शन एवं उत्‍साहवर्धन के सदैव आकांक्षी है प्रणाम स्‍वीकार करें

Comment by Akhand Gahmari on January 8, 2014 at 11:05pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी मार्गदर्शन एवं उत्‍साहवर्धन के सदैव आकांक्षी है प्रणाम स्‍वीकार करें

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 8, 2014 at 9:30pm

आदरणीय अखण्ड भाई , बहुत सुन्दर रचाना की है , बधाइयाँ स्वीकार करें ॥

Comment by coontee mukerji on January 8, 2014 at 6:27pm

बहुत सुंदर...नारी मन की अभिव्यक्ति. आपको हार्दिक बधाई.

Comment by Abhinav Arun on January 8, 2014 at 5:26pm
मधुर मनोरम सुन्दर रचना अखंड श्री हार्दिक बधाई !!

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