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रूबरू होता हूँ मैं उससे आजकल जब भी,
देखता हूँ उसे हैरत भरी निगाहों से,
उसके चेहरे पे घिरी रहती है एक मायूसी,
और निगाहों में कोई तल्ख़ सी उदासी भी,
उसकी मानो तो, हक़ीकत यही उदासी है,
और उसके लिये हर ख्वाब महज़ धोखा है,
मुझसे कहता है वो, कि "तुम भी बदल जाओगे,
तुमसे जब ज़िन्दगी के सच का सामना होगा।"
है वो वाक़िफ़ बग़ैर-शक़ बड़े तज़ुर्बों से,
और देखा है ज़माने को भी मुझसे ज्यादा,
उसने महसूस किये हैं तमाम दर्द-ओ-अलम,
और बेशक़ उसे ख़बर है हर हक़ीकत की;
मुझको  उसकी हक़ीकतों पे कोई शक़ भी नहीं,
और दावा भी नहीं वक़्त के तज़ुर्बे का,
उसकी बातें भी सब कि सब ज़रूर सच होंगी,
और होगी नहीं यूँ बेसबब उदासी भी।
मैं मग़र कैसे कहूँ- मैं भी एक इन्सां हूँ,
बेख़बर, बेअसर, बेजान कोई बुत तो नहीं,
देखता भी हूँ, और महसूस भी कर सकता हूँ,
और समझता भी हूँ मैं ज़िन्दगी जीने का सबक़।
फ़र्क़ ग़र है, तो फ़क़त ये है, कि उसकी राहें
सबके क़दमों के निशानों पे चला करती हैं;
मैं मग़र पूछता हूँ ख़ुद से ही अपनी मंज़िल,
और रखता हूँ हौसला भी नयी राहों का....

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by गिरिराज भंडारी on December 20, 2013 at 11:10am
आदरणीय अजय भाई , बहुत सुन्दर भाव , सुन्दर रचना के लिये बधाई ॥
Comment by Meena Pathak on December 19, 2013 at 7:05pm

बहुत सुन्दर रचना .. बधाई आप को 

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