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लघुकथा : कीमत (गणेश जी बागी)

शास्त्री जी बहुत खुश हैं, नए घर का आज गृह प्रवेश समारोह है ।  विदेश से कंस्ट्रक्शन मैनेजमेंट की पढ़ाई पूर्ण कर इकलौता बेटा भी कल घर पहुँच गया था ।
"पापा, गेस्ट आ गये हैं आप कहें तो डिनर स्टार्ट करवा दूँ"
"नहीं बेटा, कुछ विशिष्ट अतिथियों का मैं इन्तजार कर रहा हूँ पहले वो आ जाएँ फिर भोजन प्रारम्भ कराते हैं" शास्त्री जी ने बेटे को समझाया ।
"विशिष्ट अतिथि कौन पापा ?"
"इस घर को अपने श्रम और पसीने से बनाने वाले मिस्त्री और मजदूर"
"उफ्फ ! आप भी न पापा, उनको उनकी कीमत दे दी, बात ख़त्म"
"बेटा, पसीने की कीमत देने की औकात मुझ में क्या किसी में नहीं है, शायद यह बात मैनेजमेंट में नहीं पढ़ाई जाती ।

(मौलिक व अप्रकाशित)

पिछला पोस्ट =>अतुकांत कविता - नि:शब्द

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Comment by वेदिका on December 9, 2013 at 10:43pm

मन खुश हो गया, बहुत दिन बाद! बधाई आ० बागी जी! 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 9, 2013 at 10:05pm

सच! श्रम और पसीने की कीमत कभी भी, कहीं भी नहीं लगाई जा सकती , एक बहुत सुंदर सन्देश देती लघुकथा, बधाई स्वीकारें आदरणीय गणेश जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 9, 2013 at 9:51pm

अद्दभुत... अद्दभुत... वाह... मजा आ गया पढ़ कर,एक बहुत जबरदस्त खूबसूरत सन्देश देती हुई लघु कथा,काश इस बात को याद रखें लोग कहाँ वो लोग थे जो महल बनवाकर हाथ कटवा देते थे कहाँ आपकी लघु कथा का करेक्टर ,वाह बहुत- बहुत बधाई आदरणीय बागी जी   

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