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ग़ज़ल : क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं

बह्र : २१२२ १२१२ २२

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याँ जो बंदे ज़हीन होते हैं

क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं

 

बीतना चाहते हैं कुछ लम्हे

और हम हैं घड़ी न होते हैं

 

प्रेम के वो न टूटते धागे

जिनके रेशे महीन होते हैं

 

वन में उगने से, वन में रहने से

पेड़ खुद जंगली न होते हैं

 

उनको जिस दिन मैं देख लेता हूँ

रात सपने हसीन होते हैं

 

खट्टे मीठे घुलें कई लम्हे

यूँ नयन शर्बती न होते हैं

--------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by गिरिराज भंडारी on November 18, 2013 at 2:58pm

आदरईय धर्मेन्द भाई , बहुत खूबसूरती से आपने क़ाफिया का निर्वहन किया है , उम्दा गज़ल के लिये आपको ढेरों बधाई !!!!!

Comment by annapurna bajpai on November 18, 2013 at 2:47pm

वाह !!! बहुत ही सुंदर गजल हुई है , आ० धर्मेंद्र जी बहुत बधाई । 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 18, 2013 at 2:41pm

आपकी ग़ज़ल  खट्टी मीठी ग़ज़ल है  i  बहुतेरे स्वाद है i  स्नेह i

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 18, 2013 at 2:22pm

वाह क्या कहने आदरणीय धर्मेन्द्र जी बहुत ही उम्दा ग़ज़ल दाद कुबूल फरमाएं.

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