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ग़ज़ल : अरुन शर्मा 'अनन्त'

बह्र : मुतकारिब मुसम्मन सालिम,

मदरसा बना या मदीना बना दे,
मुझे कीमती इक नगीना बना दे,

बिना मय के जैसे तड़पता शराबी,
समंदर सा प्यासा हसीना बना दे,

मुहब्बत की जिसमें रहे ऋतु हमेशा,
अगर हो सके वो महीना बना दे,

सुकोमल बदन से जरा मैं लिपट लूँ,
मेरे जिस्म को तू मरीना बना दे,
मरीना = मुलायम कपडा

लिखा हो जहाँ नाम तेरी कहानी,
ह्रदय की धरा को सफीना बना दे....
सफीना : किताब

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 18, 2013 at 4:55pm

अरुण जी ..ये ग़ज़ल भी बेहतरीन हैं ,..मेरी तरफ से हार्दिक बधाई 

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 18, 2013 at 4:48pm

शुक्रिया राजेश भाई जी

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 18, 2013 at 4:48pm

बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गोपाल सर

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 18, 2013 at 4:48pm

हार्दिक आभार आदरणीय अखिलेश सर

Comment by राजेश 'मृदु' on November 18, 2013 at 3:56pm

जय हो, बहुत बढि़या प्रस्‍तुति, सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 18, 2013 at 2:57pm

अनंत जी

क्या बात है  i

आप तो वर्सटाइल है  i

 मेरी अनंत अनंत बधाइयाँ

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 18, 2013 at 2:28pm

बड़े ही सुंदर भावों के साथ एक अच्छी ग़ज़ल की बधाई अरुण भाई। 

कृपया ध्यान दे...

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