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रेत का घरौंदा....................... ( अन्नपूर्णा बाजपेई )

समंदर किनारे रेत पर

चलते चलते यूं ही

अचानक मन किया

चलो बनाए

सपनों का सुंदर एक घरौंदा

वहीं रेत पर बैठ

समेट कर कुछ रेत

कोमल अहसास के साथ

बनते बिगड़ते राज के साथ

बनाया था प्यारा सा सुंदर 

एक घरौंदा................

वही समीप बैठ कर

बुने हजारों सपनो के

ताने बाने जो

उसी रेत की मानिंद

भुरभुरे से ,

हवा के झोंके से उड़ने को बेताब

प्यारा घरौंदा ..............

अचानक उठी लहर

बहा ले गई वो

प्यारा सुंदर घरौंदा

जिसको सींचा था

सहलाया था , प्यार से

दुलराया था

बिखरे पड़े उन अवशेषों को

समेट फिर चल दी

उन्हे दुबारा सवारने की खातिर

प्यारा सा सपनों का घरौंदा..................

जो शायद सपने ही है

जो कभी सच होते है

कभी नहीं भी

मन की संकरी गलियों मे

यूं ही घुमड़ते हुए बादल से

सपने .............

रेत के घरौंदे ही तो है ...................... ।

 

अप्रकाशित एवं मौलिक

अन्नपूर्णा बाजपेई

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on November 18, 2013 at 1:57pm

आ० प्राची जी आपका हार्दिक आभार । यूं ही टिप्पणी रूप मे स्नेह बनाए रखिए । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 18, 2013 at 12:41pm

वही समीप बैठ कर

बुने हजारों सपनो के

ताने बाने जो

उसी रेत की मानिंद

भुरभुरे से ,

हवा के झोंके से उड़ने को बेताब...............भावों की सुन्दर प्रस्तुति 

मन की संकरी गलियों मे

यूं ही घुमड़ते हुए बादल से

सपने .............

रेत के घरौंदे ही तो है ........

अपने आप से संवाद जब दृढ़ता पाता है तब सार्थक तर्क प्रधान अभिवयक्तियाँ स्वतः ही निस्सृत होती हैं 

हार्दिक बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति पर 

Comment by annapurna bajpai on November 16, 2013 at 10:46pm

आ0 वैद्य नाथ जी आपको रचना पसंद आई मुझे प्रसन्नता हुई । आपका आभार । 

Comment by annapurna bajpai on November 16, 2013 at 10:45pm

आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक  आभार । आपका मार्ग दर्शन सदैव मिलता रहे यही अभिलाषा है । सादर । 

Comment by annapurna bajpai on November 16, 2013 at 10:42pm

आदरणीय विजय जी अपने सही कहा घरौंदे बनाने की इच्छा समंदर के समीप जाने से ही तीव्र हो जाती है मन मे रोमाञ्च हो आता है । 

Comment by Saarthi Baidyanath on November 16, 2013 at 8:30pm

बहुत सुन्दर भावाभियक्ति ....नमन इस रचना को 

वही समीप बैठ कर

बुने हजारों सपनो के

ताने बाने जो

उसी रेत की मानिंद

भुरभुरे से ,

हवा के झोंके से उड़ने को बेताब.....अहा , क्या कहने 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 16, 2013 at 8:16pm

कोमल भावनाओं को सार्थक ढंग से शाब्दिक करना भी एक व्यावहारिक कला है. इस प्रयास के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीया.

शुभेच्छाएँ.

Comment by विजय मिश्र on November 16, 2013 at 4:33pm
सुंदर और सच्चे भावों का व्यथित करना संकलन . यह सच है कि घरोंदे बनाने की इच्छा समुन्दर के समिप जाने से ही तीव्र होती है . इस भाव अभिव्यंजना के लिए साधुवाद
Comment by annapurna bajpai on November 15, 2013 at 11:49pm

आ० नीरज कुमार जी , आ० शिजू जी , डॉ अनुराग सैनी जी आप सभी का हार्दिक आभार । 

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on November 15, 2013 at 10:20pm

वाह बहुत ही भाव पूर्ण और दिल को छू जाने वाली रचना है 

बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें 

कृपया ध्यान दे...

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