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रूपसी

सुंदर, सकल काया, से सभी के ह्रदय में,

अनुकूल जोश भर, जाती है वो रूपसी,

नयन उचारें जब, मधु से भी मीठे बोल,

तब मदहोश कर, जाती है वो रूपसी,

मन है पवित्र ऐसे, गंगा का हो जल जैसे,

जितने भी दोष, तर, जाती है वो रूपसी,

लता सी कमरिया को, जब लचकाती चले,

सबको बेहोश कर, जाती है वो रूपसी।

-------------------------------- सुशील जोशी

"मौलिक अप्रकाशित"

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Comment by वेदिका on October 3, 2013 at 7:38pm

सुंदर चित्रण !!

बधाई !!

Comment by बृजेश नीरज on October 3, 2013 at 7:36pm

अच्छी रचना! बधाई आपको!

Comment by रविकर on October 3, 2013 at 7:30pm

बहुत बढ़िया -
आभार आदरणीय

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on October 3, 2013 at 5:59pm

अनुकूल जोश भर, जाती है वो रूपसी,

मेरी समझ से-----  अनुकूल जोश भर जाती है , वो रूपसी  होना चाहिये ! सआदर रचना बहुत सुन्दर !

Comment by D P Mathur on October 3, 2013 at 5:28pm
मन है पवित्र ऐसे, गंगा का हो जल जैसे,
जितने भी दोष, तर, जाती है वो रूपसी,

आदरणीय , सुन्दर चित्रण के लिए बधाई ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 3, 2013 at 3:24pm

आदरणीय सुशील जी प्रेयशी की सुन्दरता का बेहतरीन चित्रण किया है आपने ..हार्दिक बधाई के साथ 

Comment by Meena Pathak on October 3, 2013 at 3:08pm

बहुत सुन्दर .. बधाई आप को आदरणीय 

Comment by राजेश 'मृदु' on October 3, 2013 at 2:47pm

जय हो आदरणीय, किंतु ऐसी रूपसी आपने खोजी कैसे ये भी बताना चाहिए, सादर

Comment by coontee mukerji on October 3, 2013 at 1:43pm

बहुत सुंदर रचना है आदरणीय,प्रयास जारी रहे.

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 3, 2013 at 11:53am

आदरणीय सुशील भाई जी दिल खुश हो गया पढ़कर बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है आपने कवित्त बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

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