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जीवन के रेगिस्तान में

जाने कितने बसंत
शीत,पतझड़, सावन
आये गये
तपती,भीगती,ठिठुरती
मुरझाती पर फिर भी
चलती रही अनवरत
हाँफती,दौड़ती,पसीजती
डोर अपनी साँसों की पकड़े
कोलाहल अंतर का समेटे
मूक, निःशब्द बस्
अपने काफिले के साथ
बढ़ती ही गई
जीवन के पथ पर !!

अपनी साँसें संयत करने को
रुकी इक पल को
पीछे मुड़ कर देखा जो
छोड़ गये थे सभी मुझको
मेरे पीछे था अब सुनसान
आगे वियावान
नीचे तपती रेत
ऊपर सुलगता आसमान
बीच में झुलसती मैं
अकेली जीवन के रेगिस्तान में ||

मीना पाठक 

मौलिक/अप्रकाशित 

Views: 718

Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 30, 2013 at 8:38am

अथाह गहरे भाव, बहुत सुंदर रचना, बहुत बहुत बधाई आदरणीया मीना जी

Comment by vijay nikore on September 30, 2013 at 4:37am

//अपनी साँसें संयत करने को
रुकी इक पल को
पीछे मुड़ कर देखा जो
छोड़ गये थे सभी मुझको
मेरे पीछे था अब सुनसान
आगे वियावान
नीचे तपती रेत
ऊपर सुलगता आसमान//

बहुत ही गहराई है आपकी रचना में।

हार्दिक बधाई, आदरणीया मीना जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by Meena Pathak on September 29, 2013 at 3:44pm

बहुत बहुत आभार आ० अनुराग जी 

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on September 29, 2013 at 2:36pm

वाह! वाह ! क्या खूब यथार्थ का चित्रण किया है ! हार्दिक बधाई आपको !

कृपया ध्यान दे...

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