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उठी जो पलकें तीर दिल के आर-पार हुआ

१२२२     १२१२     १२१२         ११२

उठी जो पलकें तीर दिल के आर-पार हुआ

झुकी जो पलकें फिर से दिल पे कोइ वार हुआ

फकत जिसको मैं मानता रहा बड़ी धड़कन

नजर में जग की हादसा यही तो प्यार हुआ

गुलों को छू लें आरजू जवां हुई दिल में

लगा न हाथ था अभी वो तार –तार हुआ

हसीनों की गली में था बड़ा हँसी मौसम

मगर जो हुस्न को छुआ तो हुस्न खार हुआ

किया जो हमने झुक सलाम हुस्न शरमाया

नजर जो फेरी हमने हुस्न बेक़रार हुआ

सफ़र में जो चला था रूठ अजनबी की तरह

पड़े जो छाले पाँव में तो खुद ही भार हुआ

मौलिक व अप्रकाशित 

 

डॉ आशुतोष मिश्र 

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Comment

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Comment by rajveer singh chouhan on September 11, 2013 at 3:36pm

बहूत ही सुन्दर रचना है श्रीमान

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 11, 2013 at 1:36pm

आदरनीय रविकर जी , आदर्नीया  अन्नपूरना  जी प्रोत्साहन के लिए हार्दिक धन्यवाद ..

Comment by annapurna bajpai on September 11, 2013 at 12:51pm

आदरनीय आशुतोष जी सुंदर गज़ल रचना हुई है बहुत बधाई स्वीकारें । 

Comment by रविकर on September 11, 2013 at 11:10am

सुन्दर प्रस्तुति-
आभार आदरणीय डाक्टर साहब-

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