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साँझ ढली तो आसमान से धीरे-धीरे

रात उतर आई चुपके-चुपके डग भरती

स्याह रंग से भरती कण-कण वह यह धरती

शांत हुआ माहौल और सब हलचल धीरे

 

कल-कल करती धारा का स्वर नदिया तीरे

वरना तो, सब कुछ शांत, भयावह रूप धरे

जीव सभी चुप हैं सहमे, दुबके और डरे

कुछ अनजानी आवाज़ें खामोशी चीरे

 

मन सहमा जब भीतर यह काली पैठ हुई

लोभ और मोह कितने उसके संग उपजे

भ्रम के झंझावातों में पग पल-पल बहके

साथ सभी छूटे, आभा सारी भाग गई

 

सहसा कुछ किरनें फूटीं, इक आशा जागी

जग की, मन की परतों से सब कालिख भागी

                                        - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on August 30, 2013 at 6:42pm

आदरणीय निकोर जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by vijay nikore on August 30, 2013 at 11:31am

हिन्दी में सानेट बहुत अच्छा बना है, आदरणीय बृजेश भाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by बृजेश नीरज on August 27, 2013 at 11:46pm

आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 27, 2013 at 9:22pm

आदरणीय बृजेश जी 

सॉनेट विधा पर आपके सतत गंभीर रचनाकर्म और संलग्नता के लिए हार्दिक बधाई.

सादर.

Comment by बृजेश नीरज on August 27, 2013 at 7:24am

आदरणीया वसुंधरा जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by Vasundhara pandey on August 27, 2013 at 7:22am

आदरणीय बृजेश जी...नदी के झरने सी कल-कल करती ...रचना बहुत प्यारी लगी !

Comment by बृजेश नीरज on August 26, 2013 at 9:45pm

आदरणीय आशीष भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on August 26, 2013 at 8:52pm

रम के झंझावातों में पग पल-पल बहके

साथ सभी छूटे, आभा सारी भाग गई  !     सुन्दर कविता भाई बृजेश जी   !

Comment by बृजेश नीरज on August 26, 2013 at 8:45pm

आदरणीय केवल भाई आपका हार्दिक आभार! आपके शब्दों से बहुत बल मिला।
सादर!

Comment by बृजेश नीरज on August 26, 2013 at 8:43pm

आदरणीय राम भाई आपको हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आयी मेरा श्रम सार्थक हुआ।

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