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सुनो तुम

न जाने कहाँ हो!

तुम्हें देख रही है मेरी आँखें

तुम्हें ताक रहीं है मेरी राहें

तुम्हें थाम रहीं है मेरी बाँहें

लेकिन तुम नहीं हो 

बहुत दूर दूर तक

बहुत दूर ...के पार

हाँ! शायद तुम वहाँ हो

सुनो तुम...

 

जाने, तुम हो भी या नहीं

कभी तो लगता है यही

पर तुम्हें होना चाहिए

है न

पर मै नहीं हूँ

तुम्हारे होने तक

मेरी नज़रें

नही जातीं वहाँ तक

कि तुम जहाँ हो

सुनो तुम,

न जाने कहाँ हो

कहाँ हो

कहाँ हो ....! 

             - गीतिका 'वेदिका'

(मौलिक/ अप्रकाशित) 

 

 

 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 27, 2013 at 1:23am

इसी मंच पर मैंने इधर की कुछ अतुकान्त रचनाओं को समझने का प्रयास किया है आप उन पर मेरे निवेदन को देख जायें, आदरणीया.

अतुकान्तता सहज प्रतीत होती अवश्य है, लेकिन उसकी वैचारिकता अध्ययन मांगती है. अन्यथा रचनाकर्म या तो उथला होजाता है अथवा असहज.  यह कुछ ऐसा ही है .. क्षुरस्यधारा निशिता दुरत्यया दुर्गम पथः इति.. . छुरे की धार पर चलने के समान यह अत्यंत दुर्गम राह है.

सादर

Comment by वेदिका on August 27, 2013 at 1:18am

आदरणीय सौरभ जी!

आपकी प्रतिक्रिया सदैव ही महत्वपूर्ण है

तथापि एक सत्य उद्घाटित करुँगी कि अतुकांत रचना को लिख कर मै और साथी रचनाकार आपकी समीक्षात्मक दृष्टी का इंतजार किया करते है| आप का अनुमोदन मिल जाना मानो रचना पास हो गयी| 

आभार आदरणीय !!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 26, 2013 at 8:29pm

परम की पुकार का प्रवाह सार्थक है. मनन ने रचनाकर्म को विशेष आयाम दिये हैं. आपसे सार्थकता की आशा सहज हो गयी है.

बहुत-बहुत बधाई..

Comment by वेदिका on August 21, 2013 at 2:59pm

आभार आदरणीय अमन जी!

सादर !!

Comment by aman kumar on August 21, 2013 at 2:52pm

कविता मे अंतर्निहित दशा .....माफ़ कर दे !नीरज जी के साथ बह गया मे  ,,,, खाली लिखने के लिए तो कोई कविता नही लिखी जाती , कही न कही मनोदशा भी साथ देती  ही है  बाकि आप जानती ही है भाव कहा से उपजा .......

Comment by वेदिका on August 21, 2013 at 2:44pm

आदरणीय अमन जी!

कवित्री की मनोदशा या कविता में अंतर्निहित दशा ???

Comment by aman kumar on August 21, 2013 at 2:24pm

कवित्री की मनोदशा समझने बाले श्रोता भी बिरले ही होते है नीरज जी आप सच्चे पाठक  हो |

Comment by बृजेश नीरज on August 21, 2013 at 8:20am

विरह के क्षणों में ऐसा ही होता है आंखें ढूंढती हैं, राहें तकती हैं, बाहें थामने को आतुर हैं लेकिन वह जिसकी चाहना है उसका सानिध्य नहीं होता। ऐसे क्षणों में प्रशंसा भी आलोचना लगती है, मन व्याकुल जो है। तभी तो अमन जी की प्रशंसा ने भी मन में शंका पैदा कर दी।
बहुत अच्छी भावाभिक्ति। आपको हार्दिक बधाई।

Comment by Abhinav Arun on August 20, 2013 at 6:13pm

ह्रदय की पुकार .. वेदना में पग कर ...उभरी है ..निखरी है रचना में ...सौ सौ बार बधाई सशक्त रचनाकार को इस स्तुत्य प्रस्स्तुती हेतु !

Comment by aman kumar on August 20, 2013 at 5:07pm

हम सब सीखते ही तो है हर स्थान पर हर मोड़ पर . 

आपका आभार

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