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लघुकथा : सांप्रदायिक (गणेश जी बागी)

त्रिपाठी जी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टी के नेता हैं । सुबह-सुबह अख़बार के साहित्यिक कालम मे प्रकाशित एक कहानी को पढ़ कर भड़के हुए थे । लेखक ने कहानी में एक मक्कार पात्र का नाम अल्पसंख्यक समुदाय से लिया था । बस नेता जी को उस कहानी मे सांप्रदायिकता की बू आने लगी | उन्होंने फ़ोन कर आनन-फानन में अल्पसंख्यक समुदाय के कई लोगो को बुला लिया । लेखक का पुतला आदि जलाकर विरोध प्रकट करने की बात तय हो गयी | 

घर के नौकर छोटू ने नेता जी को सूचना दी, "मालिक मालिक, कुछ लोग आप से मिलने आए हैं "  
"तुम उन लोगो को बरामदे मे बिठाओ, शरबत-पानी पिलाओ, मैं तैयार होकर आता हूँ "
नेता जी तैयार होकर निकलने ही वाले थे कि उनकी नज़र छोटू पर पड़ी, "अरे.. ये स्टील के गिलासों में क्या लेकर जा रहा है, रे.. ! " 
"मालिक शरबत है, आपने ही कहा था न !" 
"पगलाया है का..? " नेता जी उसपर गरजे, "शरबत स्टील के गिलासों मे क्यों लेकर जा रहा है ? दिखता नहीं, वो लोग दूसरे धर्म के हैं ?.. वहाँ आलमारी में शीशे के गिलास पड़ें होंगे, ले जा उस में.. . "

  • समाप्त 
(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment by गिरिराज भंडारी on August 19, 2013 at 5:32am

गणेश भाई , हमारे देश की ज्वलंत समस्या पर करारा और सटीक व्यंग इस लघु कथा से आपने किया !! बधाई !!

Comment by वीनस केसरी on August 19, 2013 at 12:32am

भाई जी
खुशी इस बात की भी है कि आपने अपने लिए एक केन्द्रीय विधा चुन ली है और शानदार ढंग से लघुकथा के फार्मेट को आत्मसात कर लिया है
अब आपकी लघुकथाओं का इंतज़ार रहता है ...
कभी कहानी पर भी कलम आजमाईश कीजिये ....
कहानियों की अपनी दुनिया है और पुख्ता पहचान कहानियों में ही है


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 19, 2013 at 12:25am

वीनस भाई, इस कथा से आप जुड़कर टिप्पणी दिया यही लघुकथा की सफलता है, उत्साहवर्धन और सराहना हेतु बहुत बहुत आभार | 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 19, 2013 at 12:23am

विवेक भाई, आपकी उत्साहवर्धन करती टिप्पणी किसी पुरस्कार से कम नही है, ऐसा लगा जैसे लेखन कर्म सफल हो गया, बहुत बहुत आभार, नेह छोह बना रहे :-)


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 19, 2013 at 12:23am

आदरणीया गीतिका जी प्रथम टिप्पणी से आपने उत्साहवर्धन  किया, बहुत बहुत आभार । 

Comment by वीनस केसरी on August 19, 2013 at 12:12am

गणेश भाई बहुत सटीक और जरूरी मुद्दा उठाया है
लघु कथा के हवाले से आप बधाई के पात्र है

एक घटना याद हो आई .. मैंने एक बार एक पंडित जी को शीशे की गिलास से शरबत दिया, वो गिलास देख कर बिदकने लगे .. मैंने कहा पंडित जी एकदम साफ़ और नया गिलास है ... वो कहें ,,,, हम कोई मुल्ला हैं का ?

उफ्फ्फ मैंने अपना माथा पीट लिया ...

ये कथा सभी का भोगा हुआ सच है

Comment by विवेक मिश्र on August 19, 2013 at 12:07am

दरअस्ल यह लघुकथा नहीं, भोगा हुआ यथार्थ है, जिसे पढ़कर 'वाह' नहीं 'आह' निकलती है. जातिवाद और धर्मवाद जैसी बीमारियाँ लोगों के भीतर जाने कितनी सदियों से रची-बसी हैं. मुझे तो समझ ही नहीं आता कि आखिर किस आधार पर भारत को 'धर्मनिरपेक्ष देश' कहा जाता है? बहुत गहरा वार किया आपने बागी भाई.

अब समय आ गया है कि आपको "लघु कथा विशेषज्ञ" की डिग्री दे दी जाए. :-)

Comment by वेदिका on August 18, 2013 at 11:57pm

आदरणीय बागी जी!
क्या बात है, बहुत ही चुटीले ढंग से अपने दिया तले अँधेरा दिखला दिया। लघुकथा विधा में आप की महारत वन्दनीय है।  
सादर ! 

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