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एक सुनहरी आभा सी छायी थी मन पर

मैं भी निकला चाँद सितारे टांके तन पर

इतने में ही आँधी आयी, सब फूस उड़ा

सब पत्ते, फूल, कली, पेड़ों से झड़ा, उड़ा

धूल उड़ी, तन पर, मन पर गहरी वह छाई

मन अकुलाया, व्याकुल हो आँखें भर आई

सरपट भागें इधर उधर गुबार के घोड़े

जैसे चित के बेलगाम से अंधे घोड़े

कुछ न दिखता पार, यहाँ अब दृष्टि भहराई

कैसा अजब था खेल, थी कितनी गहराई

छप्पर, बाग, बगीचे, सब थे सहमे बिदके

मैं भी देखूँ इधर उधर सब ही थे दुबके

दौर थमा, धूल जमी, आभा वापस आई

लेकिन अब भी मन है, आँख नहीं खुल पाई

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment by बृजेश नीरज on August 8, 2013 at 5:52pm

आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार! इस विधा को जितना भी जान समझ सका हूं वह आपके सहयोग के बिना शायद सम्भव नहीं होता। आपसे इस विधा पर हुई चर्चाएं इसे समझने में बहुत लाभकारी रहीं। आपने अन्य भाषाओं में इस विधा पर हुए कार्य का जिस तरह से अध्ययन किया है। मैं चाहूंगा कि आप वह जानकारियां हम सबसे साझा करें इसलिए मेरा विनम्र अनुरोध है कि आप भी इस विधा पर एक लेख उपलब्ध कराएं।
सादर!

Comment by वेदिका on August 8, 2013 at 4:50pm

बहुत भावपूर्ण रचना के लिए बधाई लीजिये आदरणीय बृजेश जी! 

सुधीजनों का निवेदन सानेट पर लेख होना चाहिए, अवश्यमेव ही पूर्ण करिये, ताकि सम्पूर्ण जानकारी मिले,

सादर !!  

Comment by Vindu Babu on August 8, 2013 at 4:18pm
आदरणीय सानेट की विधा पर अब आपकी लेखनी की गति सुगम होती जा रही है।
बहुत ही सुन्दर सानेट प्रस्तुत की है आपने शिल्प औप भाव दोनो ही दृष्टि से!
इस विधा का हिंदी में भी महत्तवपूर्ण स्थान हो,ऐसी शुभेच्छा के साथ सानेट पर एक लेख की सादर प्रतीक्षा करती हूं।
इस सफल रचना के लिए आपको ढेरों बधाई आदरणीय!
Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 1:23pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by annapurna bajpai on August 5, 2013 at 1:05pm
आदरणीय बृजेश जी बहुत ही सुंदर भावभिव्यक्ति की है आपने , बहुत ही सुंदर रचना पर बधाई ।
Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 12:21pm

आदरणीय अरुन भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 12:20pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका बहुत आभार!

Comment by Arun Sri on August 5, 2013 at 12:17pm

वाह !
बहुत बढ़िया !
लगता है कि अपना ही अनुभव है !

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 5, 2013 at 12:07pm

कुछ न दिखता पार, यहाँ अब दृष्टि भहराई

कैसा अजब था खेल, थी कितनी गहराई...........यह पंक्ति बहुत सुंदर है,

 आदरणीय बृजेश जी, गहराई ली हुयी रचना पर, हार्दिक बधाई

Comment by बृजेश नीरज on August 3, 2013 at 10:09pm

आदरणीय राणा प्रताप जी आपका हार्दिक आभार! आपके शब्दों ने मेरे प्रयास को सार्थकता प्रदान की। आपके आदेशानुसार इस विधा पर लेख तैयार करने का प्रयास करता हूँ।

सादर!  

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