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बेजान कमरे में
टूटी खटिया पे लेटा
करवट लेते हुए
आँखों के पूरे सूनेपन के साथ
कभी कभी खिड़की के
बाहर देखता हूँ
कैसी है दुनियां
क्या वैसी ही है
जैसी पहले हुआ करती थी
दर्द के समंदर में
निस्पंद जड़ सा
सोचता रहा
अपने ही अपने नहीं रहे
ये गुमशुदी का जीवन कब तक
एक चिंता जाती
तो दूसरी उत्पन्न
देखता रहता हूँ
सजीव कंकाल सा
इधर उधर
बस जिंदा हूँ
औपचारिक

राम शिरोमणि पाठक"दीपक"

मौलिक /अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by ram shiromani pathak on July 29, 2013 at 9:55pm

हार्दिक आभार आदरणीया अन्नपूर्णा जी//सादर 

Comment by ram shiromani pathak on July 29, 2013 at 9:55pm

हार्दिक आभार आदरणीय चन्द्र शेखर जी//सादर 

Comment by ram shiromani pathak on July 29, 2013 at 9:54pm

हार्दिक आभार आदरणीय जीतेन्द्र  जी//सादर 

Comment by annapurna bajpai on July 29, 2013 at 2:57pm

आदरणीय राम शिरोमणि पाठक जी बहुत ही सुंदर भाव पूर्ण कविता है । बहुत बधाई ।

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on July 29, 2013 at 11:36am

कमाल की रचना, हार्दिक बधाई आदरणीय भाई पाठक जी

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 29, 2013 at 12:16am

आदरणीय राम भाई , भावनात्मक रचना पर, हार्दिक बधाई

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