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एक गजल पेश है, वज्न २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ 
.
फिर सूने दिल का सूना पन उफ़ तौबा तौबा 
सूखा अम्बर बंजर आंगन उफ़ तौबा तौबा 
.
दिल बेचारा हारा हारा सौतन जीती फिर 
मेरे भोले सैयां का मन उफ़ तौबा तौबा 
.
एक चौराहा चारों राहें मन भटकाती है
मंजिल गुम बेमतलब जीवन उफ़ तौबा तौबा  
.
हम तो बिसरी सूरत फिर से लेके बैठे है 
उनका नादाँ जिद्दी बचपन उफ़ तौबा तौबा 
.
चंदा मामा सूरज काका सब रिश्ते झूठे 
अब तो अपना सा हर दुश्मन उफ़ तौबा तौबा 
.
ऊँचाई पे जाकर सब कुछ छोटा दिखता है 
कैसा नजरों का पागलपन उफ़ तौबा तौबा 
खेतों की हरियाली में मौसम मौसम हम  
औ पीली चूड़ी की छनछन उफ़ तौबा तौबा 
(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment by aman kumar on July 5, 2013 at 8:13am
एक चौराहा चारों राहें मन भटकाती है
मंजिल गुम बेमतलब जीवन उफ़ तौबा तौबा  
एक ताजगी है आपकी ग़ज़ल मे .........और आपकी उफ़ तौबा तौबा  मे ,
अच्छी रचना है !
आभार 
Comment by रविकर on July 5, 2013 at 8:10am

मुखड़े पर मस्ती छाई है,दिल से बल्ले बल्ले -
पढ़ते पढ़ते सुध बुध भटकन उफ़ तोबा तोबा -

आभार आदरेया-

Comment by vandana on July 5, 2013 at 7:13am

सूखा अम्बर बंजर आंगन उफ़ तौबा तौबा 

बहुत बढ़िया 

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