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मत्तगयन्द सवैया - अरुन शर्मा 'अनन्त'

आदि अनादि अनन्त त्रिलोचन ओम नमः शिव शंकर बोलें
सर्प गले तन भस्म मले शशि शीश धरे करुणा रस घोलें,
भांग धतूर पियें रजके अरु भूत पिशाच नचावत डोलें
रूद्र उमापति दीन दयाल डरें सबहीं नयना जब खोलें

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Ashok Kumar Raktale on June 25, 2013 at 8:48am

भाई अरुण कुमार शर्मा जी सादर, सुन्दर मत्तगयन्द रचा है, सादर बधाई स्वीकारें. अंतिम पद का सही अर्थ नहीं निकल रहा है इसे सुधारने की आवश्यकता है. इस पद के लिए मेरे मन में आये भावों को मैं इसतरह कहना चाहूँगा "तेज भयंकर से डरपें सब नेत्र न शेष उमापति खोलें." इसके दो अर्थ आ रहे हैं और दोनों ही प्रलय का संकेत हैं.सादर.

Comment by अरुन 'अनन्त' on June 24, 2013 at 9:07pm

आदरणीय भाई केवल प्रसाद जी अनुमोदन हेतु हार्दिक आभार आपका. भाई मैंने मात्राओं की गणना ऐसी की है कृपया एक बार पुनः देख लें, हो सकता है मैं भ्रम में हूँ.

2  1  1 / 2 1  1  /  2 1  1  / 2  1 1 / 2 1  1/   2  1 1/  2 11 / 2 2 

आदि अ/ नादि अ/ नन्त त्रि/ लोचन  / ओम न/  मः शिव/ शंकर / बोलें

2  1 1/  2  1  1  /  2  1 1 / 2  1  1 / 2  1 1/  2   1 1 /  2   1 1/  2  2 

रूद्र उ/ मापति/ दीन द/ याल ड/ रें सब/ हीं नय/ ना जब/ खोलें

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 24, 2013 at 8:16pm

आ0 अरून अनन्त भाई जी,
आदि अनादि ’अनन्त त्रिलोचन’ ओम नमः शिव शंकर बोलें
                  1221211
सर्प गले तन भस्म मले शशि शीश धरे करुणा रस घोलेंए
भांग धतूर पियें रजके अरु भूत पिशाच नचावत डोलें
’रूद्र उमापति’ दीन दयाल डरें सबहीं नयना जब खोलें’
111211
सुन्दर प्रयास हुआ है। हार्दिक शुभकामना स्वीकारें। सादर,

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