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तू  मुझमें  बहती  रही, लिये धरा-नभ-रंग
मैं    उन्मादी   मूढ़वत,   रहा  ढूँढता  संग

सहज हुआ अद्वैत पल,  लहर  पाट  आबद्ध
एकाकीपन साँझ का, नभ-तन-घन पर मुग्ध

होंठ पुलक जब छू रहे,   रतनारे   दृग-कोर
उसको उससे ले गयी,  हाथ पकड़ कर भोर

अंग-अंग  मोती  सजल,  मेरे तन पुखराज
आभूषण बन  छेड़ दें, मिल रुनगुन के साज

संयम त्यागा स्वार्थवश,  अब  दीखे  लाचार
उग्र  हुई  चेतावनी,  बूझ  नियति  व्यवहार

*******************************

--सौरभ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by D P Mathur on June 22, 2013 at 7:40am

संयम त्यागा स्वार्थवश, अब दीखे लाचार
उग्र हुई चेतावनी, बूझ नियति व्यवहार


सर नमस्कार, सभी दोहो में बहुत ज्ञान भरा हुआ है !

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