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ग़ज़ल "आदमीयत हो गयी है बेअसर हम क्या कहें"

पश्चिमी तूफां से हैं सब दर-ब-दर हम क्या कहें 
आदमीयत हो गयी है बेअसर हम क्या कहें

 

दौर धोखों और फरेबों का चला है इस कदर 
रहजनी अब कर रहे हैं राहबर हम क्या कहें

 

सच बयानी आजकल घाटे का सौदा हो गया 
झूठ कहना हो गया है अब हुनर हम क्या कहें

 

जिंदगी सब जी रहे हैं जिंदगी की खोज में 
है यहाँ पर कौन किसका हमसफ़र हम क्या कहें


लूटते शैतान इज़्ज़त चीखती हैं बच्चियां  
पत्थरों का शहर है, पत्थर बशर हम क्या कहें

 

आते जाते अब सिपाही फिर करें उनको सलाम  
चोर के फिर जीतने की है खबर हम क्या कहें

 

हम उजालों को तरसते ही रहे फुरकत के बाद 
"दीप" काली रात ठहरी इस कदर हम क्या कहें

संदीप पटेल “दीप”

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Comment by Neeraj Nishchal on May 17, 2013 at 11:44am

वाह बहुत सुन्दर संदीप भाई

Comment by विजय मिश्र on May 16, 2013 at 3:49pm
आज के हालात और गुरते इस बदनुमा वख्त के गाल पर एक झन्नाटेदार तमाचा है आपकी ये रचना , संदीपजी ,यूँही अलख जगाते रहिये . बधाई .
Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on May 16, 2013 at 3:22pm

आदरणीय केवल प्रसाद जी , आदरणीय प्रदीप सर जी, आदरणीय श्याम नारायण सर जी आप सभी का इस उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत आभार
स्नेह यूँ ही बनाए रखिए

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 16, 2013 at 11:39am

हम उजालों को तरसते ही रहे फुरकत के बाद 
"दीप" काली रात ठहरी इस कदर हम क्या कहें

वाह दीप जी क्या शानदार गजल कही 

बधाई 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 15, 2013 at 9:12pm

आ0 संदीप भाई जी,   वाह!  क्या खूब।  शानदार गजल हुई है।  हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर,

Comment by Shyam Narain Verma on May 15, 2013 at 6:10pm
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………

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