For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल - शिवाजी भी यहीं के हैं, नहीं क्यों याद आता है

बहरे हज़ज़ मुसम्मन सालिम
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
1222 1222 1222 1222

..............................................................

हुआ पैदा जो अंधा वो खड़ा राहें दिखाता है।
फटी आवाजवाला रोज अब गाने सुनाता है।

सभी कहते अरे भाई, हमारा देश गाँधी का,
शिवाजी भी यहीं के हैं, नहीं क्यों याद आता है।

भरा होता तपा लोहा जहाँ के नौजवानों में,
शहर वो ही भला कैसे ठगा सा दीख जाता है।

जरा सी बात क्या कर दी वतन की लाज की खातिर,
जमाना कोसता मुझको, बड़ा जालिम बताता है।

मुझे तो प्यार है मेरे उसी प्राचीन भारत से,
जो वेदों की ऋचाएं पढ़के औरों को पढ़ाता है।

अदा माशूक की थोड़ी नहीं भाती कभी दिल को,
हमेशा लहलहाते खेतों का दर्शन सुहाता है।

बड़ा ही गर्व होता है सदा उस क्षण को "गौरव" जब,
तिरंगे को नमन करने विदेशी सिर झुकाता है।

Views: 818

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by coontee mukerji on May 7, 2013 at 5:08pm

बड़ा ही गर्व होता है सदा उस क्षण को "गौरव" जब,
तिरंगे को नमन करने विदेशी सिर झुकाता है।

............बहुत खूब ......वैसे हर गज़ल काबिले - तारीफ़  है.  ./सादर / कुंती .

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on May 7, 2013 at 4:56pm

आदरणीय गुरुदेव, आपका कहना सही है। दरअसल मेरा ध्यान बाकी के शेरों को लिखनेपर ज्यादा चला गया था या कहिए कि मतला लिखने में मैंने थोड़ी असावधानी दिखा दी। इसी कारण से शुरुआत थोड़ी कमजोर पड़ गई। कुछ नयी पंक्तियां लिखी हैं। कृपया आप देख लें

//

कोई पगड़ी कुचलता तो कोई आँखें दिखाता है।
सहन करने लगे हम तो हमें जग आजमाता है।

सभी कहते अरे भाई, हमारा देश गाँधी का,
शिवाजी भी यहीं के हैं, नहीं क्यों याद आता है।//


साथ ही आपने मेरे प्रयास को अपना स्नेह दिया उसके लिए आपका दिल से आभारी हूँ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 7, 2013 at 2:38pm

देश की प्रकृति, देश की अस्मिता, देश की परिपाटियाँ और इसका अपना समृद्ध इतिहास.. इन सबों के प्रति जो बलवती भावना आज प्रश्नवाचक बनती जा रहे है, उसे खींच कर मुख्य धारा में ले आने की जबर्दस्त कोशिश हुई है, भाई अजीतेन्दुजी.

वैसे मतले को कुछ और कसा जाना इस सार्थक ग़ज़ल को और सुरुचिपूर्ण बनाता.  ’हुआ पैदा जो अंधा..’ वाक्यांश आज के शातिरों को मानों बख़्शता नज़र आता है. ये शातिर जन्मांध कत्तई नहीं हैं बल्कि सब्ज़-चश्मी हैं. इनका सब्ज़ रंग भी इनकी खुद की ईज़ाद है. मेरी इन बातों को तस्दीक करता है इसी मतले का मिसरा-सानी !

हमेशा लहलहाते खेतों का दर्शन सुहाता है.. इस मिसरे में दर्शन शब्द की श्लेष उपस्थिति रोमांचित करती है.

इस मुकम्मल ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाइयाँ  और हार्दिक शुभकामनाएँ

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
17 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service