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खुरदुरी हथेलियाँ 

कटी  फटी उंगलियाँ 
पच्चीस की उम्र में 
पचास के जैसी चेहरे पर
प्रौढ़ता की  लकीरें 
दस बीस इंटों से भरा तसला
सर पर ढोती 
बीच- बीच में दूर एक झाड़ी पर 
बंधे पुराने चिथड़ों से बने 
झूले पर नजर डालती ,
ना जाने उसका नन्हा 
कब भूख से बिलबिलाने लगे 
सोचकर अपने भीगे ब्लाउज को 
अपनी फटी धोती के पल्लू से छुपाती 
चढ़ी जा रही है  
हर सीढ़ी को  अपनी किस्मत 
की कहानियाँ सुनाती 
दूर कहीं से आवाज आ रही है 
मजदूर एकता जिंदाबाद 
मजदूर दिवस की बधाई हो !!!
******************************

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on May 1, 2013 at 9:10pm

आदरणीया आपकी बात से सहमत हूं और मुझे यह लग भी रहा था कि आपने लकीरें के लिए यह शब्द प्रयोग किया है। मैंने अपनी टिप्पणी में यह उल्लेख भी किया है। मेरा निवेदन यह था कि दूसरी पंक्ति अपने आप में पूर्ण है इसलिए पहली पंक्ति में चेहरे के पहले जैसी का प्रयोग अखर रहा है। मेरे विचार से वहां जैसे अधिक उपयुक्त होगा।
आप मुझसे अधिक जानकार हैं इसे बेहतर आप ही समझ सकती हैं इसलिए एक बार फिर से अपना शंका समाधान चाहूंगा। आपने मेरे कहे को महत्व दिया इसके लिए आपका आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 1, 2013 at 9:09pm

केवल प्रसाद जी रचना के मर्म से प्रभावित होने के लिए हार्दिक आभार |

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 1, 2013 at 9:05pm

आ0 राजेश कुमारी जी,   मजदूर जो मजदूरी करता है, उसका ध्यान केवल मेहनत पर होता है।  तभी तो वह अधिक से अधिक ईंटें कम समय में पहुंचाती है, ताकि वह अपने बच्चे पर भी नजर रख सके।  हां!  मां की ममता ही ...उसकी फटी धोती से ज्यादा अहम है। मर्म को छूती सजीव चित्रण।    हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 1, 2013 at 8:49pm

आदरणीय कुंती जी आपके अनुमोदन ने मेरी लेखनी को जो मान दिया उसके लिए दिल से आभारी हूँ |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 1, 2013 at 8:47pm

ब्रजेश कुमार जी बहुत ख़ुशी हुई देख कर कि आपने रचना को उसके मर्म तक पहुचने के लिए वक़्त दिया आपका सुझाव सही होता यदि मैंने चेहरे के लिए जैसी शब्द प्रयोग किया होता किन्तु जैसी शब्द यहाँ लकीरों (जो की स्त्री लिंग में है )के लिए प्रयोग किया है (पचास साल के चेहरे पर जो प्रौढ़ता की लकीरें होती हैं यहाँ बात उस सन्दर्भ में की है )एक बार फिर से लकीरों को ध्यान में रखते हुए पढ़िए आपका संशय दूर होगा । हार्दिक आभार आपका |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 1, 2013 at 8:41pm

आदरणीय प्रदीप कुशवाह जी आपकी प्रतिक्रिया हमेशा उत्साह वर्धन करती है हार्दिक आभार आपका । 

Comment by coontee mukerji on May 1, 2013 at 6:26pm

राजेश कुमारी जी , यह दृश्य हम आये दिन देखते हैं, लेकिन आपने शब्दों में चित्रण कर सोचने पर मजबूर कर दिया है . मज़दूर दीवस

की एक और विडम्बना ./सादर/ कुंती.

Comment by बृजेश नीरज on May 1, 2013 at 5:51pm

आपने बिलकुल सटीक चित्र खींचा! मजदूर दिवस की हकीकत इससे अधिक कुछ नहीं। आपको ढेरों बधाई इस सुन्दर चित्रण पर।

वैसे तो आप स्वयं ज्ञानी हैं मेरा यूं कहना उचित तो नहीं लेकिन मुझे एक छोटी सी बात अखरी तो आपसे साझा कर रहा हूं। आप इस मेरा मार्गदर्शन करें।

आपकी दो पंक्तियां हैं –

//पचास के जैसी चेहरे पर

प्रौढ़ता की लकीरें// 

मेरे विचार से ‘लकीरें’ के लिए ‘चेहरे’ से पहले ‘जैसी’ का प्रयोग उपयुक्त नहीं। इसे ‘जैसे’ रहना चाहिए। सादर!

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 1, 2013 at 5:13pm
हर सीढ़ी को  अपनी किस्मत 
की कहानियाँ सुनाती 
aadarniya rajesh kumari ji 
saadr 
maarmik aur satya 
badhai 

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 1, 2013 at 2:24pm

राजेश कुमार झा जी   मेरी रचना में  अपने स्वर मिलाकर जो मान दिया उसके लिए दिल से आभारी हूँ । 

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