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प्रेम के मोती

नमवायु के शुष्क, जमे कण 

धरती की गर्माहट भरी 

सतह पर 

हो जाते हैं जब इकट्ठे 

तो बन जाते हैं कोहरा |

फिर यही कोहरा 

अस्त-व्यस्त कर देता है

जन जीवन को ,

धीमा कर देता है 

जिन्दगी की रफ़्तार को,

कारण बनता है

कई चिरागों के बुझने का,

साक्षी बनता है 

हृदय स्पर्शी चीत्कारों का|

वापिस भी मोड़ देता है 

आगे बढे हुए

कई क़दमों को,

धुंधला कर देता है

अच्छी भली दृष्टि को|

लेकिन जब यही धुंधलका

पवन की थपथपाइयों से,

सूर्य की हल्की तपिश से

हो जाता है छूमंतर|

तब बढ़ने लगती है रफ़्तार,

लौट आता है जीवन,

फैलने लगती हैं मुस्कराहटें,

बढ़ने लगते हैं कदम, 

दृष्टिगोचर होती है स्पष्टता|

क्योंकि

प्रकृति लेती है परीक्षा मानव की

और देती है शिक्षा

धैर्यवान बनने की|

 

आपसी प्रेम और सौहार्द की गर्माहट 

पिघला देती है कोहरे को 

जो छाया है मानव मानव के बीच,

कर देती है परिवर्तित 

प्रेम के मोतियों में,

ओस कणों से सींच|

पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

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Comment

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Comment by Usha Taneja on April 22, 2013 at 5:22pm

आदरणीय  Dr.Ajay Khare जी, यही कोहरा और धूप संवेदनहीनता एवं प्रेम के प्रतीक हैं. काफी समय पहले लिखी थी यह कविता. मुझे लगता है कि आज इसकी प्रासंगिकता बढ़ गई है.

अच्छी सी टिपण्णी के लिए धन्यवाद.

Comment by Usha Taneja on April 22, 2013 at 5:17pm

आदरणीय  vijay nikore जी, अपने भावनाओं की अभिव्यक्ति को सराहा. बहुत बहुत शुक्रिया.

Comment by Usha Taneja on April 22, 2013 at 5:15pm

आदरणीय sharadindu mukerji जी, आपने शब्दों एवं भावों को तह से समझा व महसूस किया है. आपकी आभारी हूँ.

Comment by Usha Taneja on April 22, 2013 at 5:10pm

आदरणीय  coontee mukerji जी, मुझे तो अपनी रचना से आपकी टिपण्णी अधिक भावपूर्ण लगी. बहुत बहुत धन्यवाद.

Comment by Dr.Ajay Khare on April 22, 2013 at 12:25pm

adarniya usha ji pyaar ko aapne parbhasit kiya oos kohra ke roop mai jo chomantar ho jata hai nikalte hi dhoop mai  badhai

Comment by vijay nikore on April 22, 2013 at 7:42am

ऊषा जी,

 

भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति !

बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on April 22, 2013 at 3:14am

शब्दों का दांव-पेंच नहीं, भावनाओं का धुँधलका नहीं....स्वच्छ नीले आकाश की तरह मन को मोह लेने वाली रचना. ऐसी मधुर प्रतीति आजकल बहुत कम रचना को पढ़कर होती है. आदरणीया ऊषा जी, मेरा नमन स्वीकार कीजिए.

Comment by coontee mukerji on April 22, 2013 at 2:58am

 

आपसी प्रेम और सौहार्द की गर्माहट 

पिघला देती है कोहरे को 

जो छाया है मानव मानव के बीच,

कर देती है परिवर्तित 

प्रेम के मोतियों में,

ओस कणों से सींच|...........जीवन का प्रकृतिकरण  करते हुए ......अंत में रचना का सारा भाव निचोड़ इन पंक्तिओं में समाविष्ट

है . अति सुंदर ...प्रगतिशील भी , शिक्षाप्रद भी ....उषा जी , बहुत2 बधाई .सादर , कुंती .

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