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बाबू मैं बाजारू हूं

ना मैं बेटी ना ही मां हूं

केवल रैन गुजारू हूं

रम्‍य राजपथ, नुक्‍कड़ गलियां

सबकी थकन उतारू हूं

बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं

अंधेरे का ओढ़ दुशाला

छक पीती हूं तम की हाला

कट-कट करते हैं दिन मेरे

रिस-रिस रात गुजारूं हूं

बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं

जात-पात का भेद ना मानूं

ना अस्ति ना अस्‍तु जानूं

घुंघरू भर अरमान लिए मैं

सबका पंथ बुहारू हूं

बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं

पता आपको भी तो होगा

या नारों का पहना चोगा ?

कहो तंत्र के वृहत्‍पाद हे

क्‍यूं मैं बदन-उघाड़ू हूं ?

बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं

सूत्रधार ओ युग विषाद के

जख्‍म पूर दो नामुराद के

कहो मौसमी सीरत वाले

क्‍यूं मैं ढोर-गंवारू हूं ?

बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं

स्‍वयंदूतिका, अगणवृत्‍त हूं

इस समाज का भित्तिचित्र हूं

स्‍याह कलम वाले ही बोलो

क्‍यूं मैं लाज बिसारूं हूं ?

बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं

(पूर्णत: मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by वेदिका on April 11, 2013 at 11:26pm
व्यतिथ कर देने वाले भाव...सच से भरपूर चित्र काव्य तारीफ करू आपकी कला की...या दुखी होऊ उस बहुत खूब व्यथा पर, जो पीऱ आपनॆ सामने रख दी....उन पीङा झेलती आत्माओं की ओर से आपको हार्दिक आभार..आदरणीय राजेश जी !
पीड़ादायी ,,लोमहर्षक ,,यतार्थवादी काव्यचित्र :(((((
Comment by coontee mukerji on April 11, 2013 at 10:24pm

एक बाजारू औरत के भीतर बैठी औरत की आन्तरिक पीड़ा को  भले ही समाज नकार दें लेकिन कोमल हृदय कवि की  आँखों से बच नहीं

पाता . ह्रदय को छू देने वाले चित्रण. आपको बहुत बधाई .राजेश जी . सादर  -कुंती .

Comment by ram shiromani pathak on April 11, 2013 at 8:44pm

पता आपको भी तो होगा

या नारों का पहना चोगा ?

कहो तंत्र के वृहत्‍पाद हे

क्‍यूं मैं बदन-उघाड़ू हूं ?

बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं

बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति बड़े भाई बहुत ही सुन्दर ....... हार्दिक बधाई 

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