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जब ढल जाती है रात
कृष्ण-पक्ष की काली गह्वर सी अकेली,
एक सितारा टिमटिमाता हुआ
उलटा लटका सा नज़र आता है.

शय्या पर बैठी उनींदी,
एक सांस खींचती गहरी सी,
खोलती हूँ जब आँखें पूरी
दूर कहीं निगाह भटक जाती है.

निःस्तब्ध रात्रि और मेरा अकेलापन
अपने विचारों को समेटती,
अनगिनत नक्षत्रों को गिनती
रहती हूँ शून्य में खोई सी.

दूर कहीं बादल भटकते,
कुछ यादें शूल से चुभते,
बाग में पत्रहीन वृक्ष भीड़ में खड़ा,
हरीतिमा बीच रोता अकेला.

बचपन से यौवन तक
ज़िंदगी के भीड़ में, कितने
रिश्ते टूटे और कितने जुड़े
सोचती हूँ और खो जाती हूँ.

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Comment by coontee mukerji on March 18, 2013 at 9:34pm

satvirji ,apko meri kavita pasand ayee . dhanyavad.

Comment by coontee mukerji on March 18, 2013 at 9:32pm

adarniya vijay ij, namaskar, apko meri kavita acchee lagee janekar mujhe bahoot khushi hui.bahut bahut dhanyavad

Comment by vijay nikore on March 17, 2013 at 6:59pm

 

आदरणीया कुन्ती जी:


.....एक सितारा टिमटिमाता हुआ

     उलटा लटका सा नज़र आता है.


.....खोलती हूँ जब आँखें पूरी     

     दूर कहीं निगाह भटक जाती है.


.....अनगिनत नक्षत्रों को गिनती     

     रहती हूँ शून्य में खोई सी.


.....बचपन से यौवन तक     

     ज़िंदगी के भीड़ में, कितने     

     रिश्ते टूटे और कितने जुड़े     

     सोचती हूँ और खो जाती हूँ.

कुन्ती जी, यह सभी भाव एक के बाद एक... बस मेरे अंतरमन को छूते गए।

कविता आपकी है, पर लिखते समय जैसे आपने मेरे मन को पढ़ लिया ...यह

आपने कैसे किया !

 

आपकी कविताओं की प्रतीक्षा रहती है।


इस सुन्दर कविता के लिए किन शब्दों से बधाई दूँ!


सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 16, 2013 at 7:00am
आ॰ कुन्ती मुकर्जी जी, अकेलेपन को बहुत सुन्दर शब्द प्रदान कर प्रस्तुत किया है आपने, रचना के लिए बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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