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अहंकार है जड़ प्रकृति, स: ह्वै चेतन सार!

हंसा बूझि अस मूढ़मति, ज्ञानी भए भव पार!!

 

द्युलोक मा व्यापक रहत,आदित तैजस रूप!

बसुधा धारत अनल सत,वायु शून्‍य इक भूप!!

 

आदित्य सोसत सागर, गुरुत्व शून्य अस भाए!

बादल डाले  वीर्य रस, धरा उपज अति पाए!

विश्वान इक गर्भ सृजक, चेतन रहा डोलाए!!

षट घन घना कुंभ विकृत,सत जागत सुख पाए!!

 

हंस उड़त एक पाद से,इक जलाशय रहि जाए!

कर्म  पाश रस  चाहना, फिरै  सरोवर  पाए!!

 

जीवन जग जन जाति रस,बढ़त-बढ़त मिट जाए!

क्रोध-अह्म-मन-व्याधि-जड़,घटत-घटत सुख पाए!!

(के.पी.सत्यम)

मौलिक एवम् अप्रकाशित रचना!

 

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Comment

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 12, 2013 at 12:31pm

प्रयास के लिए बधाई, गुरुवर आदरणीय सौरभ जी ने विस्तार से सीख दी है, जो हम सभी के लिए उपयोगी है | 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 11, 2013 at 2:29pm

भाई केवल प्रसाद जी, आपकी शास्त्रीय छंदों के प्रति ललक आश्वस्त करती है.

आप युवाओं के उस समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं जो भारतीय शास्त्रीय छंदों को चूका हुआ मान कर स्वयं को तदनुरूप अभ्यास से बचाता नहीं,  न  ही अपने रचनाकर्म की कमियों को छिपाने के क्रम में इनके प्रयोग से अनावश्यक बिदकता है. आप जैसे रचनाकारों को छंदों पर रचनाकर्म करते देखना भला लगता है. 

यह अवश्य है कि जब हम किसी संज्ञा का उद्धरण देते हैं तो उस संज्ञा के मूलभूत नियमों को अवश्य संतुष्ट करें. अन्यथा वह संज्ञा अपना परिचय खो देती है. 

दोहा छंद के कुछ अति आवश्यक मूलभूत लिखित और मान्य नियम हैं जिनके कारण ही कोई द्विपदी दोहा छंद कहला सकती है. उनका यथोचित निर्वहन न होना उक्त छंद में की गयी रचना को ही प्रश्न के दायरे में डाल देता है.

आपके कई दोहे इस लिहाज से नियमान्तर्गत नहीं आते.

यथा,

अहंकार है जड़ प्रकृति, स: ह्वै चेतन सार!

हंसा बूझि अस मूढ़मति, ज्ञानी भए भव पार!!  .. बोल्ड दोनों चरणों को देख लीजियेगा.

 

द्युलोक मा व्यापक रहत,आदित तैजस रूप!  ... .. . .  दोहा के विषम चरण का प्रारंभ जगण शब्द से नहीं हो सकता.

बसुधा धारत अनल सत,वायु शून्‍य इक भूप!!

 

आदित्य सोसत सागर, गुरुत्व शून्य अस भाए! .

बादल डाले  वीर्य रस, धरा उपज अति पाए!............   यह पूरा छंद नियमानुसार अस्पष्ट है. दोनों सम चरणों का अंत दोषयुक्त है. पाए, भाए को सहज ही पाय या भाय कहा जा सकता था.. . ए की कुल मात्रा दो होने से पाए या भाए ४ मात्राओं के होंगे यानि गुरु गुरु.. पहल् पद का विषम चरण भी दोषयुक्त है.

विश्वान इक गर्भ सृजक, चेतन रहा डोलाए!!

षट घन घना कुंभ विकृत,सत जागत सुख पाए!!.. .   इसके दोनों सम चरण का पदांत ही पिछली द्विपदी की तरह दोषयुक्त है.

 

हंस उड़त एक पाद से,इक जलाशय रहि जाए!

कर्म  पाश रस  चाहना, फिरै  सरोवर  पाए!! ........ ...पूर्ववत सम चरण पदांत दोष

 

जीवन जग जन जाति रस,बढ़त-बढ़त मिट जाए!

क्रोध-अह्म-मन-व्याधि-जड़,घटत-घटत सुख पाए!!.. . जाय, पाय करने से सम चरण का पदांत दोष हटाया जा सकता है.

नियमों के सधने के बाद ही छंदों के कथ्य और तथ्य पर बात होती है.

शुभेच्छाएँ

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