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ग़ज़ल - शहर की रोशनी में गाँव की ढिबरी बुलाती है !

यहाँ की भागा दौड़ी में वो बेफ़िक्री ही  भाती  है ,
शहर की रोशनी में गाँव की ढिबरी बुलाती है ।

बनावट वाली राधाओं को उनके कृष्ण कब मिलते ,
वो तो मीरा के होते हैं जो उनको मन में गाती है ।

सिमटना दायरों में और बातें चाँद से करना ,
ये करता हूँ जो माँ मुझको तुम्हारी  याद आती है ।

पिता की डांट से गुमसुम जो बैठी थी उदासी में ,
लिपटकर माँ के आँचल से वो बच्ची खिलखिलाती है ।

अंधेरों की सियासत से जो जुगनू बनके लड़ते हैं ,
सुबह की लालिमा श्रद्धा से उनको  सिर नवाती है ।

हटाकर राह से पत्थर मुसाफिर बढ़ते जाना तुम ,
सफलता हौसले वालों को सीने से लगाती है ।

बुराई से बचो बापू के बन्दर सीख देते हैं ,
बुराई आदमी की खूबियों को घुन सी खाती है ।

बदन की ही तरह मन में भी कोई खोट मत रखना ,
मुलम्मों में सड़ी हो चीज़ तो भी गंध आती है ।
                            -   अभिनव अरुण 
                                  [19122012]

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Comment by Abhinav Arun on December 21, 2012 at 2:59pm

आभार श्री अरुण जी ग़ज़ल आपको पसंद आई मेरा लिखा सार्थक हुआ । वही शेर विशेष रूप से मुझे भी पसंद है !!

Comment by Abhinav Arun on December 21, 2012 at 2:58pm

आचार्य श्री सलिल जी , आपका कहा ठीक है और स्वीकार्य भी । वैसे मैंने "उस राधा " के स्थान पर " बनावट वाली राधाओं " के बारे में लिखा है । पर आपका सुझाव सर आँखों पर मैं इसे अपनी डायरी में बदल देता हूँ । हार्दिक आभार सलाह हेतु !!

Comment by Abhinav Arun on December 21, 2012 at 2:55pm
आदरणीय श्री सौरभ जी रचना पर अपने उत्साह बढाया हार्दिक आभार आपका !!
Comment by Abhinav Arun on December 21, 2012 at 2:52pm

आदरणीया सुमन जी , रचना के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार आपका !!

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 21, 2012 at 11:40am

अरुण जी बेहतरीन ग़ज़ल कही है ढेरों दाद कुबूल करें सभी के सभी अशआर अच्छे हैं खासकर यह सबसे ज्यादा पसंद आये .
सिमटना दायरों में और बातें चाँद से करना ,
ये करता हूँ जो माँ मुझको तुम्हारी  याद आती है,
अंधेरों की सियासत से जो जुगनू बनके लड़ते हैं ,

सुबह की लालिमा श्रद्धा से उनको  सिर नवाती है ।



Comment by sanjiv verma 'salil' on December 21, 2012 at 8:34am

अरुण जी रचना खूब रुची किन्तु राधा और बनावट? यह समझ से परे है. राधा तो देश काल की परंपरा को चुनौती  देकर भी सत्य और निष्काम अनुराग की अभिव्यक्ति का नाम है.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 20, 2012 at 5:24pm

भाई अरुण अभिनव जी, स्पष्ट कहन से समृद्ध इस ग़ज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाइयाँ. मतला आज की विवश परिस्थिति को बखूबी ज़ाहिर करता हुआ है. उसका बयां होना काबिलेतारीफ़ तो है ही.

अंधेरों की सियासत से जो जुगनू बनके लड़ते हैं ,
सुबह की लालिमा श्रद्धा से उनको सिर नवाती है ।

इस शेर के लिये विशेष रूप से बधाई कह रहा हूँ.  शुभेच्छाएँ और शुभकामनाएँ

Comment by SUMAN MISHRA on December 19, 2012 at 9:58am

मन की पुकार अपनी सी, अपनी मिटटी, अपनी जमीन और कैसा भी हो सब अपना,,,,बहुत खूबसूरत कविता है आपकी बधाई

कृपया ध्यान दे...

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