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 नहीं रहा अब गाँव में, भाईचारा भाव,
खेतो में बढ़ने लगे, नित क्लेश के भाव ।
 
 
नहीं रहा अब शहर में, जीना यूँ आसान,
जगते है अब चाय से, रात जाम की शान ।
 
मोल झूंठ का बढ रहा, संत जगत भी मौन,
सच सस्ते में बिक रहा, सच बोले अब कौन।
 
सज्जनता के खोल में, दुष्टो की है देह,
इमान पर भी आ रहा, मन में अब संदेह ।
 
साथ हमारा तज गए, मन के कैसे मीत,
 हमको अब भाते नहीं ,मधुर प्रेम के गीत ।   
 
बस्ती बस्ती कंस है,   नहीं तुझे है भान 
गलियो में रावण मिले,अपमानित है राम ।
 
कुर्सी से लगन जिनकी, वे सब तो है साथ, 
सुर में सुर मिले जब ही, कुर्सी तेरे  हाथ ।
 
टिकिट मिलगया हो गए, इक दूजे के साथ,
टिकिट कट गया तो गए, बागी के हम साथ ।
 
दाग दामन पर न लगे, यह झुलसाती आग,
बचो झुलसती आग से, बागी को झट त्याग ।
       
दगा वक्त पर दे गए, अब तक थे वे ख़ास,
'लक्ष्मण' अब करना नहीं,गैरों पर विश्वास ।
 
-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला 

 

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Comment by वीनस केसरी on December 6, 2012 at 12:55am

सधते सधते सध गये, साधो के सब काम
माया भी है मिल गई, और मिले हैं राम

जय हो
ये तो दोहा हो गया ...
खुद को बधाई ठोक लूं अपनी जिंदगी का पांचवा दोहा लिख लिया :))))))))))))))

सच में दोहा लिखना बेहद कठिन कार्य है, आपने तो एक से बढ़ कर एक लिखे हैं
विशेष बधाई

Comment by लतीफ़ ख़ान on December 5, 2012 at 8:43pm

जनाब लक्ष्मण प्रासाद जी ,,, आज की राजनीति के चेहरे से नकाब हटाते यह दोहे सटीक एवं समयानुकूल हैं ,, "अशोक चक्रधर" जी की यह पंक्तियाँ याद आ गईं ,,, जब भी मैं किसी वेश्या के कोठे पर जाता हूँ ,, मुझे ऐसा लगता है ,,मेरा राजनीति में सक्रीय प्रवेश हो गया ,,, बहुत बहुत बधाईयाँ ,,,,

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 5, 2012 at 12:00pm

कृपया नित को नित्य पढ़े 

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