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दवा ही बन गई है मर्ज़ इलाज क्या होगा;

उसे सुकून यक़ीनन बहुत मिला होगा; (१)

मैं नूरे-चश्म था जिसका कभी वो कहता है,

नज़र भी आये अगर तो बहुत बुरा होगा; (२)

हमारे बीच मसाइल हैं कुछ अभी बाक़ी,

ठनी है जी में यही, आज फ़ैसला होगा; (३)

जहाँ ख़ुलूस दिलों में है धड़कनों की तरह,

वहीं पे मंदिरों में जल रहा दिया होगा; (४)

तेरे गुनाह की पोशीदगी है दुनिया से,

मगर ख़ुदा की निगाहों से क्या छुपा होगा; (५)

गुज़ारता मैं तेरे साथ वक़्त और मगर,

न रोक आज के वो राह ताकता होगा; (६)

नहीं रहा जो जहाने-ज़वाल में 'वाहिद',

'चलो ये ठीक हुआ' आपने कहा होगा; (७)

****************************************

बह्रे-मुज़ारे मुसम्मन मुरक्कब मक़्बूज़ मख़्बून मक़्बूज़ महज़ूफ़ो मक़्तुअ

१२१२/ ११२२/ १२१२/ २२

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Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on November 15, 2012 at 1:26am

संदीप भाई अच्छी ग़ज़ल के लिए ढेरों दाद कुबूल करें ! 

मैं नूरे-चश्म था जिसका कभी वो कहता है,

नज़र भी आये अगर तो बहुत बुरा होगा॥

और .....

हमारे बीच मसाइल हैं कुछ अभी बाक़ी,

ठनी है जी में यही, आज फ़ैसला होगा॥

बहुत उम्दा शेर कहे हैं आपने !!

साभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 15, 2012 at 12:48am

मुकम्मल ग़ज़ल के लिये ढेरों दाद कुबूल करें, भाई संदीप वाहिद जी.

Comment by वीनस केसरी on November 14, 2012 at 10:46pm

वाह वाहिद साहिब क्या कहने

मैं नूरे-चश्म था जिसका कभी वो कहता है,
नज़र भी आये अगर तो बहुत बुरा होगा;

हमारे बीच मसाइल हैं कुछ अभी बाक़ी,
ठनी है जी में यही, आज फ़ैसला होगा;

ग़ज़ल में जब ऐसा बहते हुए अशआर होते हैं तो ग़ज़ल की मकबूलियत के जमानतदार बन जाते हैं
शेर संख्या ६ के उला में अभी को मगर से बदल कर देखें

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